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राजनीतिक रस्साकशी में जनादेश का अपमान 

मारिया जॉन सांचेज
१८ जून २०१८

दिल्ली में चल रही राजनीतिक रस्साकशी ने अब भयावह रूप अख्तियार करना शुरू कर दिया है. अनशन कर रहे एक मंत्री सत्येंद्र कुमार जैन अस्पताल पहुंच गए हैं और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का भी स्वास्थ्य बिगड़ रहा है.

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Indien Arvind Kejriwal Narendra Modi Treffen
केजरीवाल और मोदी (फाइस फोटो)तस्वीर: picture-alliance/dpa

जब से अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जीत हासिल करके सत्ता में आयी है, तभी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार को काम-काज न करने देने की ठान ली है. अन्य सभी जगह भारतीय जनता पार्टी का विरोध करने वाली कांग्रेस इस मुद्दे पर उसके साथ है, बल्कि केजरीवाल और उनकी सरकार की आलोचना करने में उससे आगे ही है. कारण यह है कि 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में बहुमत प्राप्त करके प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी धुआंधार प्रचार किया था. उस समय उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी. लेकिन उनके अश्वमेध के अश्वों की लगाम पकड़कर उनका मुंह मोड़ने का काम सबसे पहले केजरीवाल ने ही किया. बीजेपी को 70 में से सिर्फ तीन सीटें मिलीं और कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया.

मुख्यमंत्री केजरीवाल ने भी अपने असंयमित और निरंकुश आचरण से स्थिति को और अधिक बिगड़ने में योगदान दिया. उपराज्यपाल केंद्र सरकार के एजेंट की तरह काम करते रहे. नियमों का सहारा लेकर और अदालतों के निर्देशों के आधार पर लगभग ऐसी स्थिति पैदा कर दी गयी कि दिल्ली सरकार केंद्र सरकार का केवल एक विभाग बन कर रह गयी जो उपराज्यपाल की मर्जी के बगैर कोई भी कदम नहीं उठा सकती. पुलिस, डीडीए यानी भूमि, अदालत और अदालती शुल्क दिल्ली सरकार के अधिकार में नहीं है. विधानसभा में पेश किए जाने से पहले प्रत्येक विधेयक पर उपराज्यपाल की मंजूरी लेना अनिवार्य है. उपराज्यपाल किसी भी विषय की फाइल मंगा सकता है. और उपराज्यपाल अपने पद के अधिकारों का निरंकुश ढंग से इस्तेमाल कर भी रहे हैं. 

दिल्ली के आईएएस अधिकारी हड़ताल पर हैं, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है. पांच मंत्री उपराज्यपाल से मिलने उनके घर गए जो उनका दफ्तर भी है. भेंट न हो पाने पर वे वहीं धरने और अनशन पर बैठ गए. अब उनमें से दो की तबियत खराब हो गयी है. यहां यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि 2002 में जब लालकृष्ण आडवाणी केंद्रीय गृह मंत्री थे और कांग्रेस की शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री थीं, तब कुछ ऐसे नियमों को फिर से लगा दिया गया था जिन्हें बीजेपी के मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के लिए हटा लिया गया था. इस खुल्लमखुला पक्षपातपूर्ण रवैये की आलोचना होने पर इस कदम को वापस लिया गया.

बर्लिन में शहर का प्रशासन स्वायत्त है. लंदन और अन्य राजधानियों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है. लेकिन दिल्ली में नहीं है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब राज्य सरकार के पास बिना उपराज्यपाल की मंजूरी के कुछ भी करने का अधिकार नहीं है, तो विधानसभा के होने और उसके चुनावों पर इतना पैसा खर्च करने का क्या औचित्य है? अधिकारविहीन सरकार क्या अपने आप में एक अन्तर्विरोधपूर्ण स्थिति नहीं है? दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी और कांग्रेस जब विपक्ष में होते हैं, तब उनके चुनाव घोषणापत्र में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा देने की मांग सबसे ऊपर होती है लेकिन सत्ता में आते ही वे यह मांग भूल जाते हैं. देश भर में विपक्षी एकता की कोशिशें कर रही कांग्रेस दिल्ली में केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी से हाथ मिलाए हुए है जबकि केजरीवाल अकेले नेता थे जिन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बुलाकर दिल्ली में नोटबंदी के खिलाफ एक विशाल जनसभा और प्रदर्शन किया था. सभी अड़चनों के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी दिल्ली में उनके कार्यकाल में काफी अच्छा काम हुआ है और शिक्षा को व्यापार बना चुके प्राइवेट स्कूलों के प्रबंधन की नकेल कसी गयी है. 

लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार जनादेश का प्रतिनिधित्व करती है. केजरीवाल को दिल्लीवासियों ने अभूतपूर्व जनादेश दिया. उनकी सरकार पर क़ानून के अनुसार अंकुश लगाना केंद्र सरकार का अधिकार है, लेकिन क़ानून का बहाना बनाकर उसे लुंजपुंज कर देना उसी जनादेश का अपमान है जिस जनादेश के सहारे बीजेपी केंद्र में और अनेक राज्यों में सत्ता में आयी है. राजनीतिक रस्साकशी में सबसे अधिक नुकसान दिल्लीवासियों का हो रहा है. एक अच्छा शासन और प्रशासन पाना उनका लोकतांत्रिक अधिकार है, जिसे संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए कुचला जा रहा है. 

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