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विवाद

साझा दुश्मन के खिलाफ करीब आते इस्राएल और सऊदी अरब

६ अप्रैल २०१८

सऊदी अरब के राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान ने इस्राएल के हक में आवाज बुलंद कर अरब दुनिया में हलचल मचा दी है. जानकार कहते हैं कि ईरान को काबू में करने के लिए सऊदी अरब और इस्राएल को हाथ मिलाना पड़ रहा है.

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Bildkombo Mohammed bin Salman, Kronprinz Saudi-Arabien & Benjamin Netanjahu, Ministerpräsident Israel
तस्वीर: Reuters/A. Levy & A. Cohen

1948 में इस्राएल के बनने के बाद यह पहला मौका है जब सऊदी अरब के किसी अधिकारी ने इस्राएल का खुलकर समर्थन किया है. अमेरिकी पत्रिका द अटलांटिक दो दिए इंटरव्यू में सऊदी अरब के राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान ने कहा कि इस्राएल को अपने अस्तित्व का हक है. राजकुमार सलमान ने यह भी कहा कि सऊदी अरब को यहूदियों से कोई समस्या नहीं है और खुद पैगंबर मोहम्मद ने "एक यहूदी महिला से शादी" की थी.

राजकुमार सलमान का यह बयान भी दोनों देशों की बढ़ती नजदीकी की तरफ इशारा करता है, "इस्राएल अपने आकार की तुलना में एक बड़ी अर्थव्यवस्था है, वह एक बढ़ती अर्थव्यवस्था है और निश्चित रूप से ऐसे कई इलाके हैं जहां हम इस्राएल के हित साझा करते है, और अगर शांति रहती है तो इस्राएल और खाड़ी कोऑपरेशन काउंसिल के देशों व मिस्र और जॉर्डन के साथ कई हित साझा होंगे."

सऊदी अरब और इस्राएल ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं. सुन्नी बहुल सऊदी अरब नहीं चाहता कि खाड़ी और अरब देशों में शिया बहुल ईरान का प्रभाव फैले. ईरान सीरिया, यमन और दूसरे देशों में जारी विवादों में भी शामिल है.

मिस्र की काहिरा यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हसन नफा कहते हैं कि ईरान सऊदी अरब और इस्राएल को करीब ला रहा है, "सऊदी अरब को लगता है कि मुस्लिम जगत का नेतृत्व करने में ईरान उसका प्रतिद्ंवद्वी है, डर है कि कहीं शिया बहुल ईरान प्रभुत्व स्थापित न कर ले." दोनों देशों को यह भी चिंता है कि ईरान कहीं परमाणु हथियार न बना ले. नफा के मुताबिक अगर इस्राएल ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले भी करे तो सऊदी अरब को इससे सकून मिलेगा.

लंदन की रीजेंट्स यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर योसी मेकेलबर्ग भी खाड़ी में एक बड़ा बदलाव देख रहे हैं. इस्राएल के अस्तित्व को स्वीकार कर सऊदी अरब ने मुस्लिम जगत को एक बहुत स्पष्ट संदेश दे दिया है. इस्राएली कूटनीति को भी इस संदेश का फायदा मिलेगा. मेकेलबर्ग कहते हैं, "हम देख सकते हैं कि इस्राएल उस इलाके का एक हिस्सा है और जरूरत इस बात की है कि फलीस्तीनियों के साथ एक ईमानदारी भरा समझौता हो. लेकिन इसके लिए उस पुराने राग को बंद करना पड़ेगा जो कहता है कि इस्राएल को पूरी तरह नष्ट किया जाना चाहिए."

मोहम्मद बिन सलमान के बयान का इस्राएलियों ने स्वागत किया. लेकिन फलीस्तीनी इससे जाहिर तौर पर खुश नहीं हुए. लंदन में तैनात इस्राएली राजनयिक इलाद रातसन के मुताबिक राजकुमार का बयान दिखाता है कि सऊदी अरब इलाके में इस्राएल की नीतियों का समर्थन करता है. वहीं गजा में रहने वाले फलीस्तीनी लेखक यासेर अल जात्रेह कहते हैं, "वो हमलावर हैं जो धरती के विभिन्न कोनों से आए और एक देश के लोगों को खदेड़कर वहां कब्जा कर लिया. उनके "हक" की यह बात पूरी तरह बकवास है."

बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान तत्कालीन विदेश मंत्री जॉन केरी ने मध्य पूर्व विवाद को सुलझाने के लिए इस्राएल और फलीस्तीन के कई चक्कर लगाए थे. लेकिन डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका इस्राएल का पक्ष लेता हुआ दिख रहा है. येरुशलम को ट्रंप इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता दे चुके हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के विरोध के बावजूद ट्रंप ने यह कदम उठाया. अमेरिका के बाद अब इलाके की महाशक्ति सऊदी अरब भी इस्राएल के पक्ष में खड़ा हो रहा है. वह विवाद में अहम भूमिका निभाना चाहता है.

मेकेलबर्ग के मुताबिक सऊदी अरब ऐतिहासिक बदलावों से गुजर रहा है. महिलाओं को ड्राइविंग का अधिकार देना, सिनेमा को मंजूरी देना, स्कूली किताबों से धार्मिक कट्टरपंथ के तत्व निकालना और अब इस्राएल के समर्थन में आना. यह बदलाव 21वीं सदी के मुताबिक किए जा रहे हैं, मेकेलबर्ग कहते हैं, "काम न करने वाली पुरानी नीतियों से चिपके रहने के बजाए मोहम्मद बिन सलमान नई कोशिशें कर रहे हैं और उनके बारे में बात भी कर रहे हैं. इस वक्त सऊदियों और इस्राएलियों के हित काफी मिल रहे हैं, तो ऐसे में इसे स्वीकार क्यों न किया जाए? इससे सऊदी अरब इलाके में एक बहुत ही अहम ताकत के रूप में सामने आएगा और फलीस्तीन और इस्राएल के बीच एक ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका भी निभा सकेगा."

वेसली डॉकरी/ओएसजे