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अंधविश्वासों में जकड़े देश को बदलने के लिए

शिवप्रसाद जोशी
२० अगस्त २०१८

विख्यात तर्कवादी और लोकप्रिय वैज्ञानिक नरेंद्र दाभोलकर की याद में भारत में वैज्ञानिक चेतना दिवस मनाया जा रहा है. तमाम जनसंगठनों की इस साझा कोशिशों के बीच सवाल ये भी कि क्या भारत कभी अंधविश्वास मुक्त देश बन पायेगा.

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Indien Trauer um Aktivisten Narendra Dabholkar
तस्वीर: Getty Images/AFP/Strdel

पांच साल पहले, 20 अगस्त को हिंदूवादी कट्टरपंथियों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के प्रमुख दाभोलकर की गोली मारकर उस समय हत्या कर दी थी जब वो मॉर्निंग वॉक पर थे. दाभोलकर की स्मृति में, ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क की पहल पर उससे जुड़े 38 सामाजिक संगठन आज राष्ट्रीय वैज्ञानिक चेतना दिवस मना रहे हैं. नेटवर्क के मुताबिक वैज्ञानिक मिजाज पर चौतरफा हमलों के प्रतिरोध के तौर पर वैज्ञानिक चेतना के प्रचार प्रसार का काम और तेज होना चाहिए. ये प्रतिरोध आंदोलन अंधविश्वास के अलावा, सांप्रदायिकता, मॉब लिंचिंग और असहिष्णुता जैसी भयावहताओं से भी लड़ रहा है जिनका हाल के वर्षों में चिंताजनक उभार देखा गया है. 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51 ए (एच) ‘साइंटिफिक टेंपर' के विकास और जरूरत को नागरिकों के बुनियादी कर्तव्य के रूप में रेखांकित करता है. आज जो देश में हालात हम देख रहे हैं और जो ऐसा नहीं है कि कहीं से टपके हैं या तत्काल प्रकट हुए हैं, उनके पीछे एक पूरी तैयारी और मनोवृत्ति का एक पूरा इतिहास परिलक्षित होता है. ये सही है कि आज ऐसे हालात अधिक हिंसक और अभियानों से लैस हैं लेकिन इनसे निपटने के लिए अतीत में भी बहुत कम तैयारियां रही हैं. बेशक 19वीं सदी के भारतीय समाज सुधारकों ने अधंविश्वास विरोधी अभियानों से तत्कालीन हालात को भरसक बदलने की कोशिश की थी. आज के कई सामाजिक कानून उनकी लड़ाइयों की देन हैं. लेकिन जातीय श्रेष्ठता और ब्राह्मणवादी वर्चस्व, सुधारों पर हावी होते गए. फिर अंधविश्वासों और रूढ़ियों की जकड़बंदियां समाज पर नए सिरे से और सख्त होकर कस गईं. आज इसलिए ये जरूरी लगता है कि ऐसी विकरालता का प्रतिरोध करने के लिए और व्यापक और स्थायी निर्भयता की जरूरत है.

दाभोलकर ने 1989 में महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के नाम से अपना अंधविश्वास विरोधी जनजागरूकता अभियान शुरू किया था. महाराष्ट्र के अलावा कर्नाटक के बेलगामा और गोवा में संस्था की तीन सौ से ज्यादा इकाइयां सक्रिय हैं. दाभोलकर परिवार तो जुड़ा ही है संस्था में अविनाश पाटिल मौजूदा प्रमुख हैं. दाभोलकर की हत्या से उनके कार्यकर्ता स्तब्ध जरूर हुए लेकिन डर से विचलित होकर बिखरे नहीं, और मजबूती से डटे हैं. अंधविश्वासों और असहिष्णुता के खिलाफ शहरों, गांवों, कस्बों में लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते हैं और अपने स्तर पर ‘आधुनिक भारत के निर्माता' बने हुए हैं. हाल के वर्षों में नकली खबरों, अफवाहों और शांति भंग करने वाली धूर्ततापूर्ण हरकतों के बीच जातीय और धार्मिक विद्वेष ने भी नई परिभाषाएं और नये औजार गढ़ लिए हैं. वैज्ञानिक मिजाज की दयनीय स्थिति का अंदाजा आरबीआई बोर्ड के नये सदस्य और स्वदेशी जागरण मंच के नेता एस गुरूमूर्ति के केरल बाढ़ वाले बयान से लग जाता है- लब्बोलुआब ये था कि सबरीमाला मंदिर में प्रवेश को लेकर महिलाओं की सुप्रीम कोर्ट में अर्जी से भगवान भी कुपित हो गये और केरल को अतिवृष्टि में डुबो दिया.  

इस बयान पर अफसोस क्या करें कि सैकड़ों उदाहरण अपनी विकरालता में सामने आ जाते हैं. विभिन्न समाचार माध्यमों की खबरों के मुताबिक, केरल के इडुकी में कथित दैवी शक्तियां हासिल करने के लिए एक आदमी ने अपने परिवार के पांच सदस्यों को मार डाला. उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक दंपत्ति ने अपनी छह वर्षीय बीमार बेटी को मार डाला कि उसके बाद स्वस्थ संतान पैदा होगी. डायन कहकर लड़कियों और औरतों को मार देना, या उनकी बीमारी ठीक करने के नाम पर उनका बलात्कार कर देना- अंधविश्वासों के नाम पर अत्याचार थम नहीं रहे हैं.

लोक मान्यताएं और पारंपरिक रीति रिवाज, स्थानीय जनजातियों और आदिवासियों की लोक-संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं लेकिन उन्हें अलग कर अपसंस्कृति के कुएं में डाला जा रहा है. अपसंस्कृति वो नहीं है जैसा कि शुद्धतावादी मानते हैं. अपनी मूल जीवन-संस्कृति को विरूप करना, अवैज्ञानिक मान्यताओं को बनाए रखना, और लोक परंपराओं को धार्मिक जकड़ में फंसा लेना भी अप-संस्कृति के प्रकार हैं. अंधविश्वास और कर्मकांड का भी एक सफल और विशाल बाजार है. इसके भी शक्तिशाली नियंता हैं. और ये किसी एक धर्म या जाति की नहीं सभी धर्मों जातियों में धंस चुकी समस्या है. सचेत समाज कैसे बनेगा. बल्कि उस समाज की नादानियों, अनभिज्ञताओं और मूर्खताओं का इस्तेमाल करने वाली ताकतें दिनोंदिन समृद्ध और ताकतवर होती जाएंगी. कथित तांत्रिकों और बाबाओं की हाल की गिरफ्तारियों के बाद उनके अकल्पनीय साम्राज्य के पर्दाफाश को लोगों ने हैरत और बेयकीनी से देखा है.

और फिर अंधविश्वास, अतार्किक मान्यताओं और मिथकों को इतिहास का तथ्य बनाकर पेश करने का खेल तो और भी भयानक है. किताबें लिखी जा रही हैं, पलटी जा रही हैं. किताबों की सामग्रियां बदलने के उपक्रम तीखे हुए हैं. मंत्री और नेता अपने बयानों से भ्रमित करते हैं और प्राचीन गौरव के नाम पर मिथकों और आख्यानों की कल्पनाओं को सच की तरह पेश करते हैं. गायों की ऑक्सीजन निष्कासन और ग्रहण क्षमता हो या जेनेटिक इंजीनियरिंग, या प्राचीन काल का इंटरनेट या डार्विन के सिद्धांत से इनकार, कितने बयान, कितने उदाहरण हैं कि चिंता होती है आने वाली पीढ़ियों के लिए कहीं हम सिर्फ शर्मिंदगी न छोड़ जाएं.

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