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कोई नहीं चाहता यह जंग

मार्सेल फुर्स्टेनाउ/आईबी४ दिसम्बर २०१५

इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों से लड़ने के लिए जर्मनी अपने सैनिकों को सीरिया भेज रहा है. जर्मन सरकार ऐसा इसलिए नहीं कर रही क्योंकि वह ऐसा चाहती है, बल्कि इसलिए क्योंकि उस पर बाहरी दबाव है, कहना है मार्सेल फुर्स्टेनाउ का.

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तस्वीर: Reuters/F. Bimmer

13 नवंबर 2015 फ्रांस के लिए वही मायने रखता है जो 11 सितंबर 2001 अमेरिका के लिए. दोनों में तुलना लाजमी है और सही भी. तब भी, आज ही की तरह, जर्मनी ने कट्टरपंथी इस्लाम से जूझ रहे मित्र देश के साथ एकजुटता दिखाई थी. इंसानी और राजनैतिक स्तर पर यह कदम स्वाभाविक भी है, लेकिन क्या अपना वादा पूरा करने के लिए जरूरी है कि सेना को भी पूरी तरह से इसमें फंसा दिया जाए? बेशर्त एकजुटता का परिणाम अंधी वफादारी हो सकता है.

इस बेशर्त एकजुटता की एक भयानक मिसाल है 2003 का इराक युद्ध, जिसमें, शुक्र है कि जर्मनी हिस्सेदार नहीं बना था. उस वक्त की सरकार को अमेरिका की इस दलील पर पूरी तरह यकीन नहीं था कि सद्दाम हुसैन ने जनसंहारक हथियार जमा कर रखा है. आज हम जानते हैं कि यह सरासर झूठ था. लेकिन इस बार वैसा नहीं है. इस्लामिक स्टेट का खतरा साफ साफ नजर आ रहा है.

Kommentarfoto Marcel Fürstenau Hauptstadtstudio
मार्सेल फुर्स्टेनाउतस्वीर: DW/S. Eichberg

इस पर कोई दो राय नहीं है कि इस आतंकी संगठन का रूप दहशत भरा है. खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वालों की और उनके मददगारों की हरकतें पाक नहीं हैं. पेरिस में जिस तरह का आत्मघाती हमला किया गया, वह अल्लाह के नाम पर लड़ाई लड़ने वालों का सबसे बड़ा हथियार है. आप उनके अगले कदम को नहीं भांप सकते. वे किसी भी वक्त और कहीं भी हमला बोल सकते हैं. और यह बात हर कोई जानता है. लेकिन इसके बावजूद जर्मन सरकार इस बहकावे में आ गयी है कि वह कुछ हवाई हमलों से आईएस का खात्मा कर सकती है. ऐसा कर के वह खुद ही को धोखा दे रही है. महीनों से अमेरिकी और फ्रांसीसी सैनिक दुश्मनों पर हमला कर रहे हैं, कुछ वक्त से रूस और ब्रिटेन ने भी यह शुरू कर दिया है. लेकिन फिर भी, ना तो इस्लामिक स्टेट पर कोई असर हुआ है और ना ही उसके कब्जे में मौजूद इलाका कम हो पाया है.

तो फिर अब क्या बदल जाएगा, अगर 1200 जर्मन सैनिक कुछेक टॉर्नेडो फाइटर ले कर जंग में उतर जाएंगे? सरकार से नाता ना रखने वाले राजनीतिक और सैन्य विशेषज्ञ मानते हैं कि कुछ होने वाला नहीं है. और अगर मान लिया जाए कि एक दिन इस आतंकी संगठन के सभी तार काट दिए जाएंगे, तब भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि पूरे इलाके में शांति स्थापित की जा सकेगी. यह सदी अभी शुरू ही हुई है और इसी में विफल रहे सैन्य अभियानों की सूची काफी लंबी है. अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, ये सब वो देश हैं जहां आतंक ने नए रूप में जन्म लिया और आज भी पनप रहा है. और सीरिया की तो बात ही छोड़ दीजिए, जहां अचानक से सैन्य साझेदारी शुरू हो गयी है. अभी कुछ हफ्तों पहले तक सभी पक्ष उसे शैतान के रूप में देख रहे थे.

किसने सोचा था कि असद जैसे कसाई को पश्चिम एक बार फिर गले लगा लेगा? रुख में यह परिवर्तन ही दिखाता है कि पश्चिमी देशों और उनके साथ ही जर्मनी का यह ऑपरेशन कितना दिशाहीन और संदेहपूर्ण है. जर्मन सरकार खुद को एक बंद गली तक ले आई है. वह जानती है कि सैन्य अभियान बहुत से जोखिमों से भरा होगा, ये जोखिम बाहर जा रहे सैनिकों के लिए भी है और देश में रह रहे निवासियों के लिए भी. जाहिर है कि अब जर्मनी की जमीन पर इस्लामिक स्टेट के हमलों का खतरा बढ़ गया है. ये कातिल और इनके सहयोगी हमारे बीच ही रह रहे हैं. पेरिस में हुए हमले इसका प्रमाण हैं.

जर्मनी ने सिर्फ एकजुटता दिखाने के लिए खुद को एक ऐसी जंग में शामिल कर लिया है जिसका ना तो कोई राजनीतिक तर्क दिखता है और ना सैन्य. संसद में सीरिया में हमला करने के पक्ष में जिन सांसदों ने वोट दिया है, दरअसल वे कायर नहीं कहलाना चाहते थे. यह फैसला किसी के लिए भी आसान नहीं था और इसमें एक त्रासदी है. जंग में जर्मन भागीदारी का समर्थन करने वालों की अंतरात्मा इस समय विरोधियों से ज्यादा परेशान होगी. लेकिन विरोधियों को अपने इंकार में हल नहीं देखना चाहिए. समस्या के समाधान का आश्वस्त करने वाला विकल्प उनके पास भी नहीं है.