क्या अफगानिस्तान में निष्पक्ष चुनाव हो पाएंगे?
१९ अक्टूबर २०१८अमेरिका ने जब 17 साल पहले अपने समर्थकों के साथ तालिबान पर हमला किया तो उम्मीद जगी कि अब युद्धग्रस्त इस देश में लोकतंत्र की शुरुआत होगी, पर ऐसा हुआ नहीं. 2004 के राष्ट्रपति चुनाव और 2005 में हुए संसदीय चुनाव में धोखाधड़ी और अनियमितताओं के मामले सामने आए. लेकिन चूंकि ये चुनाव दशकों के गृहयुद्ध और तनातनी के बाद हुए थे, ऐसे में लोगों को भरोसा था कि परिस्थितियां बेहतर हो जाएंगी. यह उम्मीद 2009 में फिर टूटी जब राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए. इस चुनाव में सुरक्षा मामलों, मतपेटी में गड़बड़ी व धोखधड़ी के अन्य मामले सामने आए.
राष्ट्रपति हामिद करजई और अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह के बीच दोबारा चुनाव कराने की घोषणा हुई लेकिन अब्दुल्लाह के मना करने के बाद करजई फिर से अगले पांच वर्षों के लिए राष्ट्रपति बन गए. अफगानिस्तान के चुनावों में गिरावट 2010 के संसदीय चुनावों में भी जारी रही. 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' की तर्ज पर शक्तिशाली लोगों ने संसद की सीट पर कब्जा कर लिया. सबसे बुरी स्थिति 2014 के चुनाव में हुई जब देश एक बार फिर गृहयुद्ध की कगार पर आ गया. चुनावी उम्मीदवार अशरफ गनी और अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह, दोनों ने खुद को विजयी घोषित कर दिया और उनके समर्थकों ने चेतावनी दी कि अगर उनके नेता को नहीं चुना गया तो वे समानांतर सरकार बना लेंगे. यह संकट अमेरिका के हस्तक्षेप के बाद दूर हुआ और दोनों नेताओं ने सत्ता का बंटवारा किया.
सुरक्षा की चिंता
अफगानिस्तान के खराब ट्रैक रिकॉर्ड की वजह से साफ-सुथरे चुनावों को लेकर भरोसा कायम नहीं हो पाया है. सुरक्षा से जुड़े मुद्दे इस समस्या को और बढ़ा देते हैं. यहां तक की अफगानियों के स्टैंडर्ड के मुताबिक भी आगामी चुनावों को लेकर संशय बरकरार है. यूरोपीय संघ के अफगानिस्तान के प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख पियर मायायुडन कहते हैं, ''वर्तमान सुरक्षा चुनौतियों को देखते हुए हम केवल धोखाधड़ी को कम कर सकते हैं.'' उन्होंने डॉयचे वेले से कहा, ''महत्वपूर्ण यह है कि चुनावी नतीजे अफगानिस्तान के लोगों को कबूल हों. इसका मतलब है कि धोखाधड़ी और धांधली को कम किया जाए.''सुरक्षा चुनौतियों का मसला सिर्फ अफगानी वोटरों के साथ ही नहीं बल्कि उम्मीदवारों के साथ भी है. चुनाव की घोषणा के बाद से कम से कम दस उम्मीदवारों को विद्रोहियों द्वारा किए हमले में मारा जा चुका है. वहीं उग्रवादियों ने सैकड़ों अफगानियों को भी मारा है. दरअसल तालिबान व अन्य विद्रोहियों ने कसम खाई है कि वे आगामी चुनावों को लेकर हमले करते रहेंगे. उनका कहना है कि ये चुनाव अफगानियों पर विदेशियों ने थोपे हैं. हाल ही में तालिबान ने शिक्षकों और छात्रों को चेतावनी देकर कहा है कि वे वोट न दें और स्कूलों को वोटिंग सेंटर न बनने दें.
विशेषज्ञों का कहना है कि हिंसा और धांधली की आशंका अफगानियों को वोट डालने से रोकते हैं. वाशिंगटन स्थित थिंकटैंक वुड्रो विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया के उप निदेशक माइकल कुगेलमन सवाल करते हैं, ''अफगान क्यों अपनी जान जोखिम में डालकर ऐसे चुनाव के लिए वोट डालने जाएंगे जिसके निष्पक्ष होने पर संदेह है.''
काबुल यूनिवर्सिटी में लेक्चरर फैज मोहम्मद जालांद का कहना है, ''शक्तिशाली नेताओं ने कभी भी चुनाव में हार को कबूल नहीं किया और मानते हैं कि वे सत्ता में भागीदारी बनने के योग्य हैं.'' उन्होंने डॉयचे वेले से कहा, ''अफगानिस्तान का चुनावी संस्थान कभी इतना शक्तिशाली और निष्पक्ष नहीं रहा कि वह सही तरीके से काम कर सके. उनके मुताबिक, ''पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान की नींव को मजबूत किए बिना समय से पहले ही लोकतंत्र थोप दिया है.''
संसदीय चुनावों के बाद 2019 में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं. आम लोगों में डर है कि देश की सुरक्षा एक बार फिर गर्त में चली जा सकती है.
मसूस सैफुल्लाह (वीसी)