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क्लाइमेट इंजीनियरिंग, तबाही साबित न हो

४ जनवरी २०१९

जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए प्रकृति से छेड़छाड़, विज्ञान की ऐसी कोशिशों को क्लाइमेंट इंजीनियरिंग कहा जाता है. वैज्ञानिकों के पास इसके कई मॉडल हैं. लेकिन मॉडलों से ज्यादा चिंताएं उन्हें परेशान कर रही हैं.

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Symbolbild Umweltschutz, Klimaschutz & CO2-Emissionen
तस्वीर: DW/K. Jäger

ज्वालामुखी के फटते ही वायुमंडल में धुएं और राख का गुबार फैल जाता है. सल्फर यानि गंधक के कण काफी ऊंचाई तक पहुंच जाते हैं और सूर्य की किरणों को रोकने लगते हैं. नतीजा, तापमान में गिरावट.

दुनिया में कहीं भी होने वाला एक बड़ा ज्वालामुखी धमाका तापमान को आधा डिग्री तक गिरा देता है. वैज्ञानिक कुदरत के इस खेल की नकल करने की कोशिश कर रहे हैं. वायुमंडल में सल्फर पार्टिकल्स की मदद से वे ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ना चाहते हैं.

उलरिके निमायर, जर्मन शहर हैम्बर्ग के माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर मिटीरियोलॉजी में वैज्ञानिक हैं. तकनीकी संभावनाओं की इशारा करते हुए वह कहती हैं, "हमें लगता हैं कि तकनीकी रूप से सल्फर डाय ऑक्साइड को वायुमंडल में छोड़ना संभव है."

रिफ्लेक्टरों की तरह काम करते हुए ये पार्टिकल सूरज की रोशनी को परावर्तित कर सकते हैं. एक वैश्विक रक्षा छतरी, जो शायद हमारी पृथ्वी को ठंडा कर सके. सैद्धांतिक रूप से यह सोचा जा सकता है कि सल्फर के जितने चाहे कणों को स्ट्रेसोफीयर में पहुंचाया जा सकता है, जैसा 1991 में फिलीपींस के पिनाटुबो में हुए विस्फोट के दौरान हुआ था. तब सल्फर की चादर को पूरी तरह से घुलने में करीब एक साल लग गया था और तापमान उसके बाद ही बढ़ना शुरू हुआ.

उलरिके निमायर उस विस्फोट के असर के बारे में कहती हैं, "पिनाटुबो ने धरती को ठंडा किया, सल्फर की चादर पूरी दुनिया में फैल गई थी और उसकी वजह से वैश्विक तापमान आधा डिग्री तक कम हो गया था. क्लाइमेट इंजीनियरिंग भी इसी तरह काम करेगी, यह हम पर है कि हम तापमान कितना कम करना चाहते हैं.

इस तरह के दखल के कितने व्यापक परिणाम होंगे, यह समझना अभी सोच से परे है, उलरिके निमायर कहती हैं, "जलवायु बहुत ही जटिल मामला है, इसे हम मॉडल कैलकुलेशन से नहीं समझ सकते, हम यह नहीं कह सकते हैं कि चौंकाने वाला साइड इफेक्ट नहीं होगा. हम ऐसे परिणामों का अंदाजा नहीं लगा सकते."

दुनिया भर के वैज्ञानिक जलवायु को प्रभावित करने के तरीकों पर काम कर रहे हैं. क्लाइमेट इंजीनियरिंग का मतलब है, पृथ्वी के रासायनिक और भौतिक गुणों पर असर डालना.

(पर्यावरण के सामने खड़ी पांच बड़ी चुनौतियां)

आंद्रेयास ओसलिष, जर्मन शहर कील का हेल्महोल्स सेंटर फॉर ओसियन रिसर्च में शोध कर रहे हैं. वे जानना चाहते हैं कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग का धरती पर मौजूद जीवन पर क्या असर पड़ेगा, "हम क्लाइमेट इंजीनियरिंग के दो तरीकों की तुलना करते हैं. पहला, मसलन एक संकेत को देखना, गर्म होती जलवायु और सूर्य के विकिरण को कम करना. दूसरी मैथड के तहत जलवायु परिवर्तन के कारण सीओटू और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों को वातावरण से निकालकर जमीन और समुद्र में स्टोर करना."

जरा सी कार्रवाई के बड़े और व्यापक परिणाम हो सकते हैं. आंद्रेयास ओसलिष के कंप्यूटर की कैलकुलेशन तो यही बताती है. कुछ आसान से आइडियाज जबरदस्त लगते हैं, जैसे सीओटू को समंदर में स्टोर करना. गर्म पानी के मुकाबले ठंडे जल में कहीं ज्यादा कार्बन डाय ऑक्साइड संचित की जा सकती है. ताकतवर पंपों के जरिए समंदर की गहराई से सर्द पानी को ऊपर लाया जा सकता है. यह पानी वायुमंडल की सीओटू को सोखेगा. लेकिन ऐसा करना भी जोखिम से भरा है.

आंद्रेयास ओसलिष कहते हैं, "मॉडल सिम्युलेशन के जरिए हम सोचते हैं कि आज होने वाले 10 फीसदी उत्सर्जन को खपा सकते हैं. लेकिन ऐसा करके हम दक्षिण सागर के इको सिस्टम में बहुत ही बड़ा बदलाव करेंगे, शैवाल की वृद्धि से छेड़छाड़ होगी, पानी में ऑक्सीजन की और ज्यादा कमी होगी. और यह सब आज के 10 फीसदी उत्सर्जन के लिए."

कुछ ऐसे ही नतीजे आर्कटिक सागर में हुई एक रिसर्च के दौरान भी सामने आए. रिसर्चरों ने वहां फीटोप्लैक्टन नाम का रसायन डाला. यह सीओटू को बांधता है और फिर उसे समंदर की गहराई में डुबोता है. यह रसायन लहरों के साथ दूर दूर तक फैलता है. यह अतिसूक्ष्म माइक्रो आर्गेनिज्म को बढ़ावा भी देता है.

 लेकिन इस मामले में भी, सिर्फ 10 फीसदी उत्सर्जन को ठिकाने लगाया जा सकता है, पूरे इको सिस्टम पर इसके असर का भी अभी अंदाजा नहीं है. जमीन पर भी क्लाइमेट इंजीनियरिंग के एक्सपेरिमेंट चल रहे हैं. स्विट्जरलैंड में हवा से सीओटू फिल्टर की जा रही है. इस सीओटू को या तो पौधों के लिए खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है या फिर जमीन के भीतर स्टोर किया जाता है. इस मॉडल को दुनिया भर में लागू किया जा सकता है.

Schweiz Climeworks CO2-Filteranlage
स्विट्जरलैंड में लगे सीओटू फिल्टरतस्वीर: Climeworks Photo

जमीन के भीतर सीओटू के स्टोरेज को लेकर भी कई तरह की आशंकाएं हैं. आलोचकों का कहना है कि ताकतवर भूकंप आया तो गैस लीक हो जाएगी, ये भूजल में भी घुल सकती है. इसके दूरगामी नतीजों के बारे में ठोस रूप से अभी कोई कुछ नहीं कह सकता.

क्लाइमेट इंजीनियरिंग का सवाल राजनेताओं को भी परेशान कर रहा है. इसे, सचमुच और कैसे इस्तेमाल किया जाए, इस बारे में कोई नियम नहीं है. लेकिन एक बात पक्की है, अगर कुछ नहीं किया गया तो ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ती जाएगी. ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघलती जाएगी और रेगिस्तानों का विस्तार होगा. ओसलिष के मुताबिक कुछ न कुछ करना ही होगा, "हम ग्लोबल वॉर्मिंग में नाटकीय इजाफा देख रहे हैं और हम ऐसा कोई अवसर नहीं देख रहे हैं जिसमें हम तय किए गए जलवायु संबंधी लक्ष्यों को पूरा कर सकें. क्लाइमेट इंजीनियरिंग के बिना इन्हें पूरा संभव नहीं. इसका मतलब है कि हमें अभी तय करना है कि हम हर किस्म के असर के साथ क्लाइमेट इंजीनियरिंग के रास्ते पर बढ़े या जलवायु संबंधी लक्ष्यों को भूल जाएं."

लेकिन खुद विशेषज्ञ भी संदेहों से भरे हुए हैं. जलवायु में इंसानी दखल के कई अन्य घातक परिणाम हो सकते हैं. कुछ ताकतें राजनीतिक मंशा से इस तकनीक का इस्तेमाल कर सकती हैं. उलरिके निमायर कहती हैं, "मुझे लगता है कि इसके पीछे राजनीति है, जो सबसे बड़ी समस्या है क्योंकि इसे लेकर सबके लिए अंतरराष्ट्रीय नियम बनाना बहुत मुश्किल है. सबकी स्वीकृति. निजी रूप से मुझे सबसे बड़ा डर यही लगता है कि भविष्य में इसके जरिए युद्ध भी छेड़ा जा सकता है."

समय हाथ से फिसल रहा है और फिलहाल कोई नहीं कह सकता कि इन विवादास्पद प्रयोगों के जरिए सब कुछ ठीक हो जाएगा.

ओएसजे/आरपी