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खूंखार भीड़ से घिरी स्तब्ध मानवता

शिवप्रसाद जोशी
२८ जून २०१७

भारत में अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों से दुख और शर्म का माहौल है. नागरिक बेचैनी इस बात पर भी है कि देश में भीड़तंत्र पनप रहा है. लेकिन आज स्तब्ध होकर हम जो देख रहे हैं, उसके निर्माण की कुख्यात ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है.

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Afghanistan - Frauenrechte
तस्वीर: DW/Shadi Khan Saif

भारत में पिछले तीन वर्षों में मॉब लिंचिंग की वारदातों में तेजी आयी है. पीट पीट कर बेकसूरों को मार डालती भीड़ की ये बर्बरता नयी नहीं है. नयी है इसकी चपेट. आजादी पूर्व और पश्चात, भारत में वंचित, उत्पीड़ित और शोषित जमातें इस हिंसा की शिकार रहती आयी हैं. वंचितों की अनायास भीड़ को सत्ता और ताकत की सुनियोजित भीड़ ने निगला है. गहरी चोट से त्रस्त लोकतंत्र को अब तबाही की ओर धकेला जा रहा है. एक शर्मनाक खामोशी और ‘हमें क्या' वाला नजरिया भी कमोबेश उतना ही सघन होता जा रहा है. मीडिया खासकर टीवी एक भयानक प्रलाप या एकालाप में ठिठुर गया है. बस उकसावे का या पछतावे का मोनोलॉग फैला हुआ है.

भीड़तंत्र निरंकुश होता है. पहले लोकतंत्र को भेड़ की तरह हांका गया. उसकी गिरावट का पहला चरण है वोटतंत्र और जब ये हावी हो जाता है यानी हर हाल में सत्ता और वर्चस्व उसका लक्ष्य होता जाता है तो भीड़तंत्र पनपने लगता है. आज अगर एक मासूम का हत्यारा कहता है कि लोगों ने उसे उकसाया तो समझा जा सकता है कि जिस लोकतंत्र की दुहाई देते हम नहीं थकते वो दरअसल सार्वजनिक जीवन में कितना अनुपस्थित है. भीड़ हमारे व्यवहार को नियंत्रित और संचालित कर रही है. भीड़ ही तय कर रही है कि कौन सही है कौन गलत. क्या हम एक 'प्रोवोक्ड' समाज हैं? हमें उकसा देना और हत्यारा बना देना आसान हो चला है?

यही भीड़ पश्चिम बंगाल में वाम सत्ता के दौरान सैकड़ों सह नागरिकों को मारने निकली थी, यही भीड़ राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं की परस्पर खूनी टकराहट बन जाती है. यही भीड़ तेलंगाना और हाशिमपुरा और भोपाल का कोहराम बन जाती है, यही भीड़ अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा देती है, गुजरात में कत्लोगारत कर गुजरती है, दिल्ली में सिखों पर टूट पड़ती है, और इधर कभी लव जेहाद तो कभी गाय बेचने, काटने और खाने के नाम पर नागरिकों पर कहर ढा रही है.

समकालीन भारतीय कला के उस्ताद एमएफ हुसैन को एक अघोषित देशनिकाले को मजबूर करने वाली वो उन्मादी भीड़ ही थी. श्रीनगर में डीएसपी की हत्या करने वाली भीड़ का भी एक घिनौना चेहरा है जैसे सदियों से इस देश में औरतों पर हमलावर, पुरुषवादी वर्चस्व का बर्बर चेहरा है. गैंगरेप से लेकर चुड़ैल और डायन कहकर औरतों पर टूट पड़ने वाली भीड़, इसी लोकतंत्र से निकली है. ये भीड़ दरअसल एक आपराधिक गैंग में तब्दील हो जाती है. तारीख दर तारीख इन घटनाओं की तफ्सील गिनाने का यहां औचित्य नहीं, लेकिन इन डरावनी मिसालों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भीड़तंत्र का ये उभार एक धीमी और जहरीली प्रक्रिया है जो इधर और तीखी और उग्र और सांप्रदायिक हुई है.

लेकिन वो भी ‘भीड़' थी जो दिल्ली मे एक युवती के साथ हुए घिनौने अनाचार के खिलाफ सड़कों पर उतरी और जिसे तत्कालीन यूपीए सरकार के एक मंत्री पवन बंसल ने मोबोक्रेसी कह दिया. जंतर मंतर पर इंडिया अंगेस्ट करप्शन के जुनून में जुटी और बिखर गई वो भी भीड़ थी. केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात से लेकर हरियाणा और उत्तराखंड आदि राज्यों में अलग अलग समयों में अलग अलग आंदोलनों की आग में कूदी जनता की भीड़ थी. विश्व इतिहास पर इसी ‘भीड़' की झलक हम फ्रांस की क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रांति और लातिन अमेरिका के गोरिल्ला संघर्ष से होते हुए कथित अरब बसंत और अमेरिका के ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन तक देख सकते हैं.

एक बड़े सार्वभौम मानवीय मकसद से अलग जब यही भीड़ एक घिनौनी नफरत भरी सांप्रदायिकता में जमा होती है तो ये लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ ये एक आपराधिक अराजकता है. भारत में कभी इसे ठीक से समझा नहीं गया और हर बार इस पर पर्दा डालने की कोशिश की गई. जनचेतना पर सत्ता व्यवस्था ने पहले पहरे बैठाये और फिर उसे पालतू बनाने की कोशिश की. एक जागरूक नागरिकता, एक उन्मादी और जघन्य या तमाशा देखती भीड़ में कैसे तब्दील हो सकती है, लोकतंत्र की हिफाजत के सबक के तौर पर इसे भी देखा जाना चाहिए.

लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत के सामने अब सबसे बड़ा खतरा इसी बात का है कि कबीलाई किस्म की स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता जड़ जमा चुकी है जो हर उस चीज की बरबादी पर तुली है जिसका संबंध दया, करुणा, इंसाफ और इंसानियत से है. इसकी अनदेखी के गुनहगार सब हैं. मान्यताओं से निकला भस्मासुर हमें ही निगलने फैल गया है. ये फासीवाद नहीं तो और क्या है. इस व्यापक खूंखारी के बाद अब क्या ऐसा वक्त आने ही वाला है जब सामूहिक मारकाट मचेगी. क्या विख्यात चित्रकार पिकासो की अमर कृति "गुएर्निका” हमारी ही मनोदशा का विवरण नहीं था?

आज अगर इस स्वेच्छाचारी और कानून से बेखौफ जहांतहां उभर आती भीड़ को काबू में करने के जतन नहीं किये जाते तो पतन निश्चित है. बात सरकार के रहने और न रहने की नहीं है, बात सिर्फ देश की छवि और प्रतिष्ठा की भी नहीं है, बात मनुष्यता और लोकतंत्र पर मंडराते खतरे की है. हाइपर मीडिया समय में सरकारें आधा चुप्पी आधा हरकत दिखाकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती. सियासी फायदों के लिए नागरिक विवेक का अपहरण किया गया. लोगों के जेहन में घृणा और बंटवारे के बीज पड़ चुके थे. खून की ये फसल क्या किसी को दिखती है?

सरकारें भले ही बदल जाएं लेकिन लहुलूहान नागरिकता के घाव भरने का बुनियादी और सच्चा काम तो तभी होगा जब सही मायनों में नागरिक विवेक बहाल होगा वरना तो राष्ट्र, धर्म, रंग, जाति आदि के आधार पर पनपती भीड़, देश और उसकी आत्मा को ही निगल लेगी. और देश की आत्मा उसके नागरिकों में निवास करती है किसी चित्र, नारे, मतदाता या सत्ता में नहीं.