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द्रोणाचार्य पर विवाद

३ अक्टूबर २०१३

मौजूदा नैतिक मानदंडों को अतीत पर लागू कर मूल्यनिर्णय देना कितना उचित है? छत्तीसगढ़ के दो आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेजे गए एक पत्र ने ऐसे कई प्रश्न खड़े कर दिये हैं.

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तस्वीर: Eisenhans/Fotolia

ग्लैड्सन डुंगडुंग और सुनील मिंज ने राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्र में मांग की है कि सरकार को द्रोणाचार्य पुरस्कार समाप्त कर देना चाहिए. यह पुरस्कार श्रेष्ठ खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देने में सिद्धहस्त गुरुओं को प्रदान किया जाता है. पत्रलेखकों का तर्क है कि द्रोणाचार्य ने एक आदिवासी युवक एकलव्य का अंगूठा कटवा लिया था, इसलिए ऐसे आदिवासी विरोधी व्यक्ति के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कार को समाप्त कर देना चाहिए. उन्होंने इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों और महाभारत में वर्णित एकलव्य की कहानी का हवाला दिया है.
दरअसल भारतीय परंपरा में इतिहास माने जाने वाले विराट महाकाव्य महाभारत के आदिपर्व में एकलव्य की कथा आती है. द्रोणाचार्य की ख्याति महान धनुर्धर और युद्धकला के शीर्षस्थ प्रशिक्षक की थी. इसलिए उन्हें भीष्म ने कौरवों और पांडवों की शिक्षा-दीक्षा के लिए नियुक्त किया था. उनकी ख्याति सुनकर निषादराज के पुत्र एकलव्य ने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि वे उसे अपना शिष्य बना लें और धनुर्विद्या की शिक्षा दें. द्रोणाचार्य ने उसे याद दिलाया कि वह एक जंगल में रहने वाले बहेलिये का पुत्र है और निचली जाति का है. उसकी सामाजिक स्थिति के कारण वह उसे अपना शिष्य नहीं बना सकते. अपनी प्रार्थना अस्वीकार किए जाने पर भी एकलव्य का उत्साह कम नहीं हुआ. वह अपने मन में द्रोणाचार्य को अपना गुरु स्वीकार कर चुका था. उसने जंगल में लौटकर द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसे ही अपना गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा.
एक बार कौरव और पांडव वन में शिकार के लिए गए. उनके रथों के आगे-आगे एक आदमी जाल लिए हुए एक शिकारी कुत्ते के साथ चल रहा था. कुछ देर बाद कुत्ता इस दल से बिछड़ कर उस स्थान पर जा पहुंचा जहां एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था और जोर-जोर से भौंकने लगा. उसे चुप करने के लिए एकलव्य ने एक साथ सात तीर इस अनूठे ढंग से छोड़े कि वे उसके मुंह में भर गए लेकिन कुत्ता घायल नहीं हुआ और उसका भौंकना बंद हो गया. जब कुत्ता कौरव-पांडव दल को ढूंढता हुआ वापस पहुंचा तो उसकी यह हालत देखकर सब दंग रह गए.
अर्जुन तो ईर्ष्या से जलने लगा कि उससे भी श्रेष्ठतर कोई धनुर्धर पैदा हो गया है. उसने द्रोणाचार्य से शिकायत की कि उन्होंने तो एकलव्य को उससे बेहतर धनुर्धर बना दिया क्योंकि ऐसा कौशल केवल वही सिखा सकते हैं. द्रोणाचार्य ने इस आरोप का खंडन किया और एकलव्य के पास जाकर कहा कि क्योंकि उसने उन्हें गुरु मानकर विद्याभ्यास किया है, इसलिए उसे उन्हें गुरुदक्षिणा देनी पड़ेगी. एकलव्य ने पूछा कि गुरुदक्षिणा में वह क्या चाहते हैं, तो द्रोणाचार्य ने उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया. गुरुभक्त एकलव्य ने तत्काल अपना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को अर्पित कर दिया और वह एक साधारण धनुर्धर भर रह गया.
आलोचकों का मानना है कि द्रोणाचार्य के नाम पर दिया जाने वाला पुरस्कार अनुसूचित जातियों और जनजातियों का अपमान करता है क्योंकि द्रोणाचार्य ने जाति के आधार पर भेदभाव किया और जिस एकलव्य को एक भी दिन नहीं सिखाया, उससे गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया. इसमें कोई संदेह नहीं कि ऊंची जाति के क्षत्रिय राजकुमार अर्जुन की ईर्ष्या और एकलव्य के प्रति द्रोणाचार्य के अन्यायपूर्ण आचरण का आज कोई भी समर्थन नहीं करेगा, लेकिन क्या हम आज की मान्यताओं के आधार पर इन व्यक्तित्वों को खारिज कर सकते हैं?
यूनानी दार्शनिक प्लेटो और अरस्तू दासप्रथा के समर्थक थे. हम यह भी जानते हैं कि यूनान के नगर-राज्यों के लोकतंत्र में दासों को नागरिक नहीं माना जाता था. इसी तरह खेती में लगे लोगों को भी नागरिकों के अधिकार प्राप्त नहीं थे. लेकिन क्या हम इस लोकतंत्र की भर्त्सना करते हैं या उससे आज के लोकतंत्र के लिए प्रेरणा ग्रहण करते हैं? इसमें कोई शक नहीं कि दासप्रथा अमानवीय है, ठीक उसी तरह जैसे भारत की जातिप्रथा अमानवीय है. दोनों में एक समानता यह भी है कि प्राचीन दार्शनिक भी दासों को हीनतर प्राणी मानते थे, वैसे ही जैसे ब्राह्मणवादी दर्शन निचली जातियों को हर दृष्टि से हीन बताते थे.
लेकिन हम इस आधार पर हर पुराने विचारक की लानत-मलामत नहीं कर सकते क्योंकि वे अपने देश-काल और समाज के दायरे में रहकर सोच और लिख रहे थे. उन्हें उनके संदर्भ से काटकर मूल्यांकित करना उनके साथ अन्याय ही होगा. राम ने भी बालि को छिपकर मारा, शूर्पनखा के नाक-कान कटवाए, सीता की अग्निपरीक्षा ली और उसके बाद भी उन्हें गर्भवती अवस्था में घर से निकाल कर आधी रात को जंगल में छुड़वा दिया. लेकिन क्या इन आधारों पर हम राम को भारतीय जीवन से निष्कासित कर सकते हैं? इसका एक ही उत्तर हो सकता है, नहीं. द्रोणाचार्य पुरस्कार समाप्त करने की मांग पर भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए.
ब्लॉगः कुलदीप कुमार
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन