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मासूम मन और मौत से जुड़े सवाल

१५ जनवरी २०११

मौत जिंदगी का सबसे बड़ा सच है. लेकिन इस बारे में बच्चों के सभी सवालों का सही सही जवाब देना मुश्किल होता है. इसीलिए जर्मनी में एक मनोविज्ञानी ने एक खासक्रम तैयार किया है जो खासा पॉपुलर हो रहा है.

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तस्वीर: DW

जर्मन शहर कोलोन के एक प्राइमरी स्कूल में इन दिनों एक खास कार्यक्रम चल रहा है. पांच दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम में 9 से दस साल के बच्चे हिस्सा लेते हैं. इसके तहत हर दिन एक लक्ष्य तय किया जाता है और यह बात बात भी सुनिश्चित की जाती है कि एक दिन पहले उन्हें जिंदगी और मौत के बारे में जो जानकारी दी गई, उसे वे कितनी अच्छी तरह समझ पाए. इस कोर्स में बच्चों को बीमारी, तकलीफ, मौत, उससे होने वाले दुख और उसे सहने की ताकत के बारे में एक के बाद एक जानकारी दी जाती है.

मासूम मन और मौत

मनोवैज्ञानिक बेटिना हागेडोर्न ने 2005 में यह कार्यक्रम तैयार किया. वह बताती हैं, "जब भी मौत की बात होती है तो ज्यादातर मां बाप नहीं समझ पाते कि बच्चों से क्या कहें. उन्हें लगता है कि कहीं बच्चे के मन में कोई गलत धारणा न बैठ जाए. इस प्रोजेक्ट में हम बच्चों से कहते हैं कि मौत या मरने के बारे में उनका जो अब तक का अनुभव रहा, वे उसे बताएं. इस तरह वे इस बारे में सीख सकते हैं और जिंदगी में ऐसी स्थितियों का मुकाबला करने के लिए तैयार हो सकते हैं."

बेटिना हागेडोर्न पश्चिमी शहर ड्यूरन में 13 साल से यह कार्यक्रम चला रही हैं लेकिन 2008 में इसने उस वक्त सुर्खियां बटोरी जब इसे देश का सबसे बढिया हेल्थ प्रोग्राम कहा गया. बेटिना इस बात से खुश हैं. वह खुद के अनुभव से भी बताती हैं कि जब कोई अपना दुनिया छोड़ कर जाता है तो बच्चों को कैसा लगता है. वह कहती हैं, "मेरा छोटा भाई बहुत बीमार था. तीन दिन तक मेरे माता पिता को पता ही नहीं था कि वह बचेगा या नहीं. उन्होंने मुझे और मेरे दूसरे भाई को कुछ नहीं बताया. हम अस्पताल के बाहर इंतजार करते रहते थे, लेकिन बाहर आकर वे हमें कुछ नहीं बताते थे. मैं छह साल की थी और मुझे बहुत डर लगता था."

Flash-Galerie Schulanfang in Deutschland
तस्वीर: DW

खेल खेल में

इस प्रोजेक्ट में बच्चों का समय गाते, बजाते, पेंटिंग करते, फिल्म देखते और डांस करते हुए बीतता है. वे अपने अनुभवों को लेकर बहुत बात करते हैं. मसलन बीमारी के बारे में. एक दिन डॉक्टर आता है और बच्चे वे सब सवाल पूछते हैं जो उनके दिमाग में उठते हैं. उदाहरण के लिए कैसे पता चलेगा कि कोई मर गया है. या कैंसर कितना बढ़ सकता है. या फिर जब आप मर जाते हैं तो दिमाग का क्या होता है. वे अलग अलग संस्कृतियों में अंतिम संस्कार के तरीकों के बारे में भी जानते हैं. कोर्स के आखिरी दिन वे डांस करते हैं जिसे लास्ट डांस कहा जाता है. इसका मकसद है जो भी तनाव और बोझ आप पर है उसे दूर करो.

क्रिस्टीनी लेरी उन लोगों में शामिल हैं जो इस प्रोजेक्ट को चला रहे हैं. कोर्स के आखिरी दिन उन्होंने सभी बच्चों और उनके माता पिता का आभार जताया. वह कहती हैं, "बहुत सारे बच्चों, उनके दोस्तों और माता पिता को देख कर अच्छा लगा. हम उन्हें बताना चाहते हैं कि हफ्ते भर हमने क्या किया." वैसे यह कोर्स स्कूल के नियमित पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है. इसके लिए स्कूलों को अलग से आवेदन करना पड़ता है.

Kroatische Kinder Flash-Galerie
तस्वीर: DW/Anders

अच्छा है कोर्स

कोर्स चलाने वालों को आखिरी दिन यह देख कर अच्छा लगा कि बहुत बच्चों के पिता दफ्तर से छुट्टी लेकर स्कूल में आए. ऐसे ही एक पिता हैं डीटमार हार्त्सहाइम जो इस बात से खुश है कि उनकी बेटी ने काफी कुछ सीखा. वह कहते हैं, "जीवन के अंत के बारे में कोई नहीं सोचना चाहता. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. यह कोर्स बहुत अच्छा है. पहले मैंने यह नहीं सोचा था कि बच्चों को इतनी बातें बताई जा रही हैं. इसमें मां बाप को भी योगदान देना चाहिए क्योंकि हम इसकी अनदेखी करते हैं. अब बच्चे इन बातों को जान कर रहे हैं तो शायद वक्त पड़ने पर वे बेहतर तरीके से ऐसे हालात से इससे निपट सकते हैं."

वहीं एक मां डोरिस शुइन कहती हैं, "हां मुझे यह प्रोजेक्ट बहुत अच्छा लगा क्योंकि बच्चों के दिमाग में मौत को लेकर बहुत सारे सवाल होते हैं. कभी कभी मां बाप से वे उन्हें पूछ पाते हैं. पूछे तो मां बाप के पास जबाव नहीं होते. इसलिए यह बहुत ही जबरदस्त प्रोजेक्ट है. मेरे दोनों बच्चों ने इसमें हिस्सा लिया."

और फिर एक फाइनल प्रजेंटेशन के साथ पांच दिन का कोर्स पूरा होता है जिसमें बच्चे एक गाना गाते हैं. इसमें बताया जाता है कि कैसे हर किसी के लिए स्वर्ग के दरवाजे खुलते हैं.

रिपोर्टः डीडब्ल्यू/ए कुमार

संपादनः आभा एम

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