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विश्वसनीयता का संकट

महेश झा
३ मई २०१९

दुनिया भर में प्रेस स्वतंत्रता खतरे में है. मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता रहा है, लेकिन अब लोकतांत्रिक देशों में भी उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. भारत भी इसका अपवाद नहीं है.

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Symbolbild Zensur Pressefreiheit
तस्वीर: picture alliance / Stefan Rupp

हर साल 3 मई को प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है. इस साल का मुद्दा मीडिया और लोकतंत्र का रिश्ता है. लोकतंत्र में मीडिया की आलोचनात्मक भूमिका पर कोई विवाद नहीं रहा है लेकिन पिछले सालों में पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों में भी उसकी भूमिका पर सवाल उठाए जाने लगे हैं. उसे लोकतंत्र में सूचना का माध्यम या सरकारी नीतियों की आलोचनात्मक विवेचना का वाहक समझने के बदले राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों के समर्थन या विरोध का मंच समझा जाने लगा है.

भारत भी इसका अपवाद नहीं है. प्रेस स्वतंत्रता इंडेक्स में 180 देशों की सूची में उसका स्थान 140वां है. मीडिया से जुड़े लोग भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं.  कहीं उसे प्रेस्टिच्यूट कहकर बदनाम किया जा रहा है तो कहीं गोदी मीडिया कह कर. सोशल मीडिया ने इस संकट को और बढ़ाया है. एक ओर परंपरागत मीडिया समाचार का पहला स्रोत नहीं रह गया है और दूसरी ओर आमदनी गिरने से रिपोर्ट पर रिसर्च के संसाधन कम हुए हैं. नतीजा दुनिया भर में मीडियाकर्मियों की संख्या में कटौतियों और अखबारों की बिक्री में कमी के रूप में सामने आ रहा है.

लोकतंत्र में भूमिका

लोकतंत्र सत्ता के विभाजन के सिद्धांत पर टिका है. इसमें कानून बनाने का काम निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का है, कानून की संवैधानिकता की जांच का अधिकार न्यायपालिका का है और कानूनों के पालन की जिम्मेदारी सरकारों की है. लोकतंत्र का चौथा पाया कहे जाने वाले मीडिया की जिम्मेदारी मुद्दों को सामने लाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में योगदान देने और लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करने की है.

Indien Proteste von Journalisten gegen Übergriffe von Polzisten
फाइल फोटोतस्वीर: Getty Images/AFP/M. Sharma

लेकिन जिस तरह आलोचना को हमला समझा जाने लगा है और मीडिया तथा मीडियाकर्मियों पर हमले होने लगे हैं, वह भी सिर्फ गैर सरकारी किरदारों की ओर से नहीं बल्कि सरकारी प्रतिनिधियों की ओर से भी, मीडिया जगत को और समाज को भी आत्मविवेचना करने की जरूरत है. लोकतंत्र में मीडिया भी आलोचना से परे नहीं है, लेकिन संस्थाओं की एक दूसरे की आलोचना एक दूसरे के आदर और लोकतंत्र में उनकी जगह को ध्यान में रखते हुए होनी चाहिए.

स्वतंत्रता की गारंटी

भारत में भी लोकतंत्र की संरचना में भूमिका निभाने वाली संस्थाओं के वित्तीय प्रबंधन, मुनाफे, कर्मचारियों के वेतन, अतिरिक्त कमाई जैसे मुद्दों पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए ताकि आलोचनात्मक मीडिया को आजादी से काम करने की गारंटी मिल सके. अगर समाज में विसंगतियों, कुव्यवस्थाओं और असामाजिक परिस्थितियों को सुधारना है, जिनमें अशिक्षा, बेरोजगारी, अमानवीय परिस्थितियों में निवास, पर्यावरण की दुर्दशा, शोषण आदि शामिल है तो आजाद मीडिया जरूरी है. यह राजनीतिज्ञों और सरकारों के लिए भी आइने जैसा है कि उन्हें और क्या क्या करना है.

लोकतंत्र सिर्फ पांच साल के लिए नए राजा या शासक का चुनाव नहीं है. लोकतंत्र लोगों की भागीदारी के साथ उनके अपने जीवन के आयोजन की व्यवस्था है. यह भागीदारी सिर्फ चुनाव के समय नहीं बल्कि सारे समय सुनिश्चित करना हर सरकार, हर संसद और हर न्यायपालिका का जिम्मेदारी है. इसमें मीडिया की भूमिका को नकारना लोकतंत्र को कमजोर ही करेगा. इसलिए मीडिया पर आलोचना की निगाह रखते हुए उसकी आजादी को सुनिश्चित करना हर लोकतांत्रिक नागरिक की जिम्मेदारी है. और नागरिकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए मीडिया और मीडियाकर्मियों को भी अपनी प्रतिबद्धता बढ़ानी होगी.