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अक्सर विवादों में रहे हैं पूर्वोत्तर के राजभवन

प्रभाकर मणि तिवारी
१६ फ़रवरी २०१७

तमिलनाडु में मुख्यमंत्री की नियुक्ति को लेकर पिछले दिनों राज्यपाल विद्यासागर राव विवादों में रहे हैं. दूसरे राज्यों में भी राज्यपाल की भूमिका को लेकर समय समय पर विवाद होते रहे हैं.

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Indien - Parlament in Neu Delhi
तस्वीर: picture alliance/dpa

मेघालय के राज्यपाल वी. शनमुगनाथन को विभिन्न आरोपों की वजह से हाल में इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन तथ्य यह है कि पूर्वोत्तर राज्यों में राज्यपाल का पद अक्सर विवादों में रहा है. वैसे, पूर्वोत्तर राज्यों में इस पद पर बहाली को सजा के तौर पर ही देखा जाता है. अप्रैल 2015 तक इलाके के पांच राज्यों—असम, मिजोरम, मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा में कोई स्थायी राज्यपाल नहीं था. दिलचस्प बात यह है कि इन तमाम राज्यों में विपक्षी राजनीतिक दलों की सरकारें थीं. देश में सबसे ज्यादा राष्ट्रपति शासन इन राज्यों में ही लगाया गया है.

विवाद

पूर्वोत्तर राज्यों में राज्यपाल की कुर्सी हमेशा विवादों में रही है. मणिपुर के अंग्रेजी दैनिक इंफाल फ्री प्रेस के संपादक और नार्थईस्ट क्वेशचंसः कनफ्लिक्ट्स एंड फ्रंटियर्स नामक पुस्तक के लेखक प्रदीप फांजोबाम कहते हैं, "विडंबना यह है कि संविधान में राज्यपाल की जिन दो भूमिकाओं का जिक्र किया गया है वह एक-दूसरे की विरोधाभासी हैं." आजादी के बाद इलाके के विभिन्न राज्यों में उग्रवाद का दौर शुरू होने की वजह से ज्यादातर राज्यों में सेना के पूर्व जनरलों, खुफिया अधिकारियों और आईपीएस अफसरों को ही यहां राज्यपाल के तौर पर तैनात किया जाता रहा है. प्रदीप कहते हैं, "बीते एक दशक के दौरान उग्रवाद में कमी आने की वजह से अब ऐसे लोगों की जगह केंद्र में सत्तारुढ़ राजनीतिक दलों के नेताओं को इन राज्यों में बतौर राज्यपाल भेजा जाता है."

मेघालय के पूर्व राज्यपाल वी. शनमुगनाथन के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले शिलॉंग के एक गैर-सरकारी संगठन की प्रमुख एंजेला रंगद कहती हैं, "संविधान के तहत मिली सुरक्षा की वजह से ज्यादातर मामलों में राजभवन का इस्तेमाल अपराधियों को बचाने में होने लगा है." वह कहती हैं कि पहले सेना और पुलिस के पूर्व अधिकारियों को राजभवन में नियुक्त किया जाता था. लेकिन अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक राजभवनों की शोभा बढ़ाने लगे हैं. इससे संस्कृतियों में टकराव बढ़ने लगा है.

(प्रधानमंत्रियों की छवियां)

मणिपुर के पूर्व राज्यपाल शनमुगनाथन ने मणिपुर संस्कृति विश्वविद्यालय और मणिपुर फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीच्यूट के उद्घाटन समारोह में यह कह कर स्थानीय बुद्धिजीवियों को नाराज कर दिया था कि सौ शब्दों में संस्कृति की व्याख्या करने वाले को उनके साथ चाय पीने का मौका मिल सकता है. इससे नाराज बुद्धिजीवियों ने स्कूली बच्चों जैसे सवाल पूछने पर राज्यपाल की खिंचाई की थी. मणिपुर के जाने-माने फिल्म निर्माता अरिबाम श्याम शर्मा ने राज्यपाल को भेजे एक खुले पत्र में कहा था कि वह इस सवाल का जवाब नहीं देंगे. उनके लिए राज्यपाल के साथ चाय पीने का मौका छोड़ना ही बेहतर होगा. इस विवाद के बाद शनमुगनाथन को मेघालय भेज दिया गया जहां उन पर राजभवन को लेडीज क्लब में तब्दील करने के आरोप लगे और उनको अंततः अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा.

इसी तरह लेफ्टफ्रंट की सत्ता वाले त्रिपुरा में संघ के नेता तथागत राय को राज्यपाल बनाया गया है जो अक्सर अपनी टिप्पणियों से विवाद खड़ा करते रहे हैं. उन्होंने हाल में कई विवादास्पद ट्वीट भी किए. इनमें से एक में कहा गया था, "प्रिय हिंदुओं आइए एकजुट होकर मोदी को वोट दें. ऐसा नहीं हुआ तो हमें मलेच्छों से बचाने के लिए कोई दूसरा नरेंद्र मोदी नहीं मिलेगा." अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल जेपी राजखोवा भी बीते साल संवैधानिक संकट के दौरान अपने गलत और संविधान-विरोधी फैसलों की वजह से सुर्खियों में रहे थे. आखिर में उनको भी इस्तीफा देना पड़ा था.

सजा है राज्यपाल का पद

पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में राज्यपाल के पद को सजा के तौर पर ही देखा जाता है. मिसाल के तौर पर मिजोरम के राजभवन ने जुलाई 2014 से मई 2015 के बीच के दस महीनों में सात नए चेहरे देखे. केंद्र में एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद पूर्व यूपीए सरकार की ओर से नियुक्त राज्यपालों से निपटने के लिए मिजोरम का राजभवन एक अखाड़ा बन गया था. ऐसे राज्यपालों को सीधे हटाने की बजाय सरकार ने उनके लिए ऐसी दुर्गम जगह चुनी ताकि वह खुद इस्तीफा दे दें. तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री और केरल की तत्कालीन राज्यपाल शीला दीक्षित ने मिजोरम तबादले के बाद इस्तीफा दे दिया था. उससे कुछ दिनों पहले ही मिजोरम का राज्यपाल बनाए जाने पर महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल के शंकरनारायणन ने भी इस्तीफा दे दिया था. उससे एक महीने पहले ही केंद्र ने मिजोरम की राज्यपाल कमला बेनीवाल को हटा दिया था. कुछ दिनों पहले ही बेनीवाल को गुजरात से मिजोरम भेजा गया था.

पूर्वोत्तर के वरिष्ठ पत्रकार किशलय भट्टाचार्य मानते हैं कि हाल के विवादों की वजह से इलाके में राजभवन अपनी प्रासंगकिता खो रहे हैं. वह कहते हैं, "मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में राजभवन के कर्मचारियों की ओर से राज्यपालों के खिलाफ आंदोलन से साफ है कि अब इलाके के लोग धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं." उनका कहना है कि अब इलाके में राज्यपाल का पद खत्म करने के लिए ठोस अभियान शुरू करने का वक्त आ गया है. इलाके के राज्यपालों ने समस्याओं को सुलझाने की बजाय उनको और जटिल ही बनाया है.

इलाके के बुद्धिजीवियों की दलील है कि केंद्र में सत्तारुढ़ राजनीतिक पार्टियां अपने लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए उनको राज्यपाल बना कर यहां भेज देती हैं. लेकिन स्थानीय भाषा, संस्कृति और परंपराओं की जानकारी नहीं होने की वजह से ऐसे राज्यपाल अक्सर विवादों में रहते हैं. इससे स्थानीय लोगों या संबंधित राज्यों का कुछ भला नहीं होता. स्थानीय लोगों की राय में केंद्र को राज्यपाल के पद पर तैनाती के समय इलाके की परंपरा, संवेदनशीलता और स्थानीय रीति-रिवाजों का ख्याल रखना चाहिए ताकि बाद में टकराव की स्थिति नहीं पैदा हो.

लेकिन राज्यपाल के पद को लेकर होने वाली सियासत के मौजूदा दौर में इसके आसार को कम ही हैं.

(देश बदल सकती है जनता?)