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अगवा बचपन, बंधुआ बचपन

१६ अगस्त २०१३

क्या हम जो खा रहे हैं उसे दिल्ली से अगवा बच्चे आस-पास के इलाकों में बंधुआ मजदूर बनकर उगा रहे हैं? तहलका की रिपोर्टर प्रियंका दुबे ने इस पर जो रिपोर्ट की, उसे डॉयचे वेले ने पुरस्कार से सम्मानित किया. रिपोर्ट बड़ी है,

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तस्वीर: Vikas Kumar

दिल्ली में जहांगीरपुरी की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाला 14 साल का महेंद्र सिंह सात अगस्त, 2008 की सुबह रोज की तरह घर से शौच के लिए निकला था. इसके बाद उसका कुछ पता नहीं चला. घरवालों ने उसे तलाशने की न जाने कितनी और कैसी कैसी कोशिशें कीं, लेकिन सब बेकार गईं. धीरे धीरे साढ़े तीन साल गुजर गए. एक दिन अचानक महेंद्र अपने घर वापस आ गया. 16 मई, 2012 की उस दोपहर श्यामकली ने जब अपने बेटे को दरवाजे पर देखा तो पहले पहल तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ. इसकी एक वजह तो इतने लंबे वक्त की गुमशुदगी से उपजी नाउम्मीदी थी और दूसरी महेंद्र की हालत. जहांगीरपुरी की संकरी गलियों में बनी अपनी एक कमरे की खोली के फर्श पर बैठी श्यामकली धीरे से कहती हैं, "एकदम कचरा बीनने वाले बच्चों की तरह काला हो गया था. शरीर से जैसे मांस पूरा गायब हो गया था, हड्डी का ढांचा भर बचा था. भिखारियों जैसे फटे-पुराने कपड़े पहने था. दरवाजे पर आया तो पड़ोसियों को लगा जैसे कोई बंधुआ मजदूर हो."

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खेतों में काम करते बच्चेतस्वीर: Vikas Kumar

लेकिन महेंद्र की घर वापसी के उन खुशनुमा लम्हों के दौरान उसके परिवार को जरा भी आभास नहीं था कि उनका बेटा वास्तव में बंधुआ मजदूरी के एक दुश्चक्र में फंसा हुआ था. एक ऐसा दुश्चक्र जिसने साढ़े तीन साल तक उसकी जिंदगी नर्क बनाए रखी. केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2009 से 2011 के बीच भारत से कुल 1,77,660 बच्चे गायब हो गए. यानी औसतन रोजाना 162 बच्चे. केवल दिल्ली की बात करें तो यहां के लिए यह आंकड़ा 14 बच्चे प्रतिदिन है. गृह मंत्रालय द्वारा संसद में पेश किए गए ये आंकड़े गरीब भारतीय बच्चों के जिस बदसूरत बचपन की तस्वीर दिखाते हैं उसका सबसे कड़वा पहलू यह है कि लगभग 32 फीसदी बच्चे कभी अपने घर वापस नहीं पहुंच पाते. आंकड़े यह भी बताते हैं कि गुमशुदा बच्चों का पता लगाने के लिए बनवाई गई जिपनेट जैसी वेबसाइटों और जागरूकता फैलाने के नाम पर करोड़ों रुपये के खर्च के बावजूद दिल्ली की हालत इस मामले में सबसे ज्यादा चिंताजनक है. आलम यह है कि इस साल 15 अप्रैल, 2012 तक ही लगभग 1,146 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज करने वाली दिल्ली पुलिस इनमें से 529 बच्चों का कोई सुराग अब तक नहीं ढू्ंढ पाई है.

Priyanka Dubey
तहलका की रिपोर्टर प्रियंका दुबेतस्वीर: privat

'लापता बच्चों की राजधानी' के तौर पर पहचानी जाने वाली दिल्ली से 2011 में कुल 5,111 बच्चे लापता हुए. इनमें से 1,359 बच्चों का आज तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है. ज्यादातर मामलों में ये बच्चे अंग व्यापार या भिखारियों के किसी रैकेट का शिकार हो जाते हैं या फिर मासूम उम्र में ही सेक्स कारोबार में धकेल दिए जाते हैं.

लेकिन तहलका की यह तहकीकात इस दुश्चक्र की एक अलग और चौंकाने वाली कड़ी सामने लाती है. हमारी पड़ताल बताती है कि किस तरह दिल्ली से बच्चों का अपहरण किया जाता है और सिर्फ तीन चार हजार रुपये में उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों को बेच दिया जाता है, जो अपने खेतों और घरों में इनसे जबरन काम करवाते हैं. मजदूरी की बात तो छोड़ दीजिए, उन्हें भर पेट खाना तक नहीं मिलता. ऊपर से तरह तरह की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है सो अलग. हर साल गुमशुदा बच्चों की बढ़ती संख्या से परेशान केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली पुलिस सहित सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को इस बाबत तमाम दिशानिर्देश जारी किए थे. मगर तहलका की पड़ताल बताती है कि इन दिशानिर्देशों के बावजूद स्थिति अब भी बहुत हद तक दिशाहीनता की ही है. गरीब तबके से ताल्लुक रखने वाले लापता बच्चों को ढूंढने की कवायद अक्सर एफआईआर दर्ज करने से आगे नहीं बढ़ पाती. कई मामलों में तो वह भी नहीं होता.

एक तरह से देखा जाए तो यह गंभीर स्थिति है. एक तो बच्चों का अपहरण हो रहा है, दूसरे उनका शोषण हो रहा है और तीसरे, ऐसा कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा जिससे यह दुश्चक्र टूटे. चौंकाने वाला सच यह है कि यह शोषण उस किसान द्वारा किया जा रहा है जिसकी खुद की छवि ही एक शोषित वर्ग की है. सबसे खतरनाक बात तो यह है कि उसे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता. यानी इतने गंभीर अपराध को लेकर एक तरह से सहज स्वीकार्यता की स्थिति दिखती है.

रिपोर्टः प्रियंका दुबे

संपादनः अनवर जे अशरफ

(खोजी पत्रकार के तौर पर काम करने वाली प्रियंका दुबे पर्यटन और सामाजिक विसंगतियों पर रिपोर्टिंग करती हैं. उन्होंने महिलाओं और बच्चों के मुद्दे पर भी रिपोर्टिंग की है. लापता बच्चों वाली उनकी पूरी कहानी यहां पढ़ी जा सकती है.)