1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

अदालतों को भी आतंकी खतरा

१८ अगस्त २०१५

दुनिया भर में छाए आतंक के साए की जद में भारत खुद को चारों ओर से घिरा पा रहा है. इस खतरे से फिलहाल अदालतें महफूज थीं लेकिन अब सर्वोच्च अदालत और जजों पर भी आतंक का खतरा मंडराने लगा है.

https://p.dw.com/p/1GHGc
तस्वीर: CC-BY-SA-3.0 LegalEagle

यह संकट हाल ही में मुंबई धमाके के आरोपी याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के बाद ज्यादा गहरा गया है. बीते सात दशकों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि अदालतें और जज सुरक्षा के संकट से बचे हुए थे. लेकिन पिछले कुछ सालों में आतंकी हमलों का खतरा व्यापक होने के साथ संकट के दायरे में न्यायपालिका भी आ गई है.

ताजा संकट की गंभीरता और संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेमन को लटकाए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट को बम से उड़ाने और जजों को जान से मारने की सीधी धमकी दी गई है. इतना ही नहीं राजधानी में सुप्रीम कोर्ट के अलावा दिल्ली की निचली अदालतों के दो जजों को भी इसी दौरान धमकी मिली. आतंकी मामलों में फैसला सुनाने वाले दोनों जजों ने सरकार से सुरक्षा की मांग की है. हालांकि उच्च अदालतों पर सुरक्षा के संकट गहराने का यह पहला मामला नहीं है. सितंबर 2011 में सुप्रीम कोर्ट से महज चंद कदम की दूरी पर स्थित दिल्ली हाईकोर्ट के दरवाजे पर हुए आतंकी हमले ने दहशत के मौजूदा संकट की आहट दी थी. अदालत परिसरों और जजों को सुरक्षा भी मुहैया कराई गई लेकिन समय के साथ खतरा कम होने के बजाय दिनों दिन बढ़ता जा रहा है.

ताजा असर

खतरे का फौरी असर अदालत परिसरों में भय फैलने के रुप में देखा जा सकता है. एक अनुमान के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में कुल 28 जज प्रतिदिन लगभग 700 मामलों की सुनवाई करते हैं. इसके लिए अदालत परिसर में वकीलों और पैरोकारों सहित रोजाना लगभग पांच हजार लोग आते हैं. इसी तरह आतंकी हमले की धमक झेल चुके दिल्ली हाईकोर्ट के कुल 46 जज प्रतिदिन औसतन तीन हजार मामलों की सुनवाई करते हैं और इसके लिए वकीलों और पैरोकारों को मिलाकर तकरीबन 30 हजार लोगों को अदालत का रुख करना पड़ता है.

जहां तक सुरक्षा का सवाल है तो सुरक्षा एजेंसियों के नेटवर्क में उच्च अदालतों और इनके जजों को शामिल किया जा सकता है लेकिन सबसे ज्यादा संकट हजारों की संख्या में निचली अदालतें और इनके जजों के लिए है. व्यावहारिक मुसीबत यह है कि आतंकवाद से जुडे तमाम मामले छोटे छोटे शहरों की अदालतों में चल रहे हैं. जहां सुरक्षा एजेंसियों का नेटवर्क कमजोर है. इसका तात्कालिक असर दूरदराज के उन इलाकों में पड़ने का खतरा है जो नक्सली हिंसा से प्रभावित हैं.

सुरक्षा के उपाय

उच्च अदालतों के जजों को तो सुरक्षा मुहैया कराई जा रही है लेकिन सवाल यह है कि इनके सेवानिवृत्त होने के बाद सुरक्षा उपाय जारी रखे जाएंगे या नहीं. एक आतंकी मामले में फैसला सुना चुके दिल्ली हाईकोर्ट के जज एसएन धींगरा को धमकी मिलने के बाद सरकार ने उन्हें जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा मुहैया कराई थी. लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी सुरक्षा में कटौती कर जेड श्रेणी की कर दी गई. सरकार की दलील है कि सुरक्षा इंतजामों का खुफिया एजेंसियां जायजा लेकर इसमें कटौती या इजाफे का फैसला करती हैं. लेकिन इस तथ्य से अवगत आतंकी गुट सुरक्षा घटने के इंतजार में ताक लगाकर घात लगाकर हमला नहीं करेंगे, इस बात की गारंटी कोई नहीं ले सकता है.

इसलिए जर्मनी जैसे देश अत्यधिक सुरक्षा की बात तो करते हैं लेकिन महत्वपूर्ण लोगों के लिए खतरों के पैमाने और सुरक्षा के स्तर के बारे में कोई जानकारी साझा नहीं करते. संकट सिर्फ सुरक्षा का नहीं है बल्कि इससे बड़ा सवाल इस संकट से निपटने का है. भरत में इसकी जड़ में न्याय व्यवस्था में देरी और कानून की सख्ती का संकट भी है. जब तक आतंकी हमले साल के बजाय दशकों में निपटेंगे और कानून की सख्ती के अभाव से जूझती व्यवस्था की विडंबना कायम रहेगी तब तक दहशत के कारोबारी इस कमजोरी का यूं ही नाजायज फायदा उठाते रहेंगे.

ब्लॉग: निर्मल यादव