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अदालत करेगी सिस्टम साफ?

१६ जुलाई २०१३

भारत में लोकतंत्र के छद्म प्रहसन को संविधान सभा के एक वरिष्ठ सदस्य ने 1950 में संविधान लागू होते समय ही यह कहते हुए उजागर करने की कोशिश की थी कि संविधान में आम आदमी को मताधिकार के अलावा कोई अधिकार नहीं है.

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तस्वीर: CC-BY-SA-3.0 LegalEagle

वैसे तो लोकतंत्र को कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर रहे नेताओं की कारगुजारियां गाहे ब गाहे पट्टाभि सीतारमैया का यह बयान याद करा देती हैं लेकिन बीते बुधवार और गुरुवार को उच्च अदालतों के फैसलों ने यह अहसास भी करा दिया कि 63 साल पहले कही गई यह बात कितनी मौजूं थी.

भारत में राजनीतिक व्यवस्था की मौजूदा तस्वीर बताती है कि बीते कुछ दशकों में उभरी नेताओं की जमात ने राजनीति को कीचड़ का अखाड़ा बना दिया है. नतीजतन मजबूरी में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को विधायिका में साफ सफाई के लिए खुद पहल करनी पड़ रही है. कोर्ट के फैसलों का मजमून उसकी मजबूरी को साफ जाहिर करता है कि देश को चलाने के लिए नेताओं का चरित्र कैसा हो, यह तय करना कोर्ट कचहरी का काम नहीं है. लोकतंत्र में यह अधिकार सिर्फ और सिर्फ जनता का है.

यहीं से उभरता है सिक्के का दूसरा पहलू जो पट्टाभि के कथन की गहराई में जाने पर विवश करता है. अब अहसास होता है कि उनके कहने का मतलब था कि संविधान ने विधायिका का चेहरा मोहरा तय करने का जनता को लोकतांत्रिक अधिकार तो दे दिया लेकिन चेहरा साफ सुथरा हो, यह दायित्व उसके कंधों पर नहीं डाला. संविधान सभा की चर्चाओं को खंगालने पर पता चलता है कि उस समय सदन में अधिकार और दायित्व के बीच युक्तियुक्त और सम्यक संतुलन पर बड़ी व्यापक बहस हुई थी. लेकिन अधिकार के साथ दायित्व की वकालत करने वाले पट्टाभि जैसे नेताओं को अंबेडकर, नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के उदारवादी लोकतांत्रिक मॉडल के आगे झुकना पड़ा जो यह कहता था कि लोकतंत्र में विधायिका की सूरत जनता ही तय करे.

"मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी" की तर्ज पर संसद में 169 दागी सांसद भेजना जनता की अपनी पसंद है. इसमें न्यायपालिका और कार्यपालिका को सैद्धांतिक तौर पर काजी की भूमिका निभाने का कोई विकल्प नहीं है. लेकिन सियासत और हुकूमत सिद्धांत नहीं व्यवहारिकता से चलती है. इसी का तकाजा है कि शिक्षित और जागरूक समाज के लिए बनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को नीम हकीम के खतरों से अनजान भारतीय समाज में चलाने के लिए अदालतों को मजबूरी में अपनी हद पार करनी पड़ रही है.

यह पहला मौका नहीं है जब उच्च अदालतों को नेताओं पर नकेल कसने के लिए सख्त फैसले देने पड़े हों. पारदर्शिता के लिए सियासी दलों को सूचना के अधिकार के दायरे लाने की बात हो या जेल से चुनाव लड़ने पर रोक, जातियों के नाम पर रैलियों पर पाबंदी हो या फिर जेल गए नेताओं की संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म करने की बात हो, अदालतें समय समय पर ऐसे आदेश पारित करती रही हैं. लेकिन अब तक का अनुभव बताता है कि सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाई कोर्ट के ये फैसले भारत में राजनीति के अपराधीकरण की समस्या से निजात दिला देंगे, ऐसा सोचना दिन में सपने देखने से कम नहीं होगा.

हमें समझना होगा कि कानून बनाना विधायिका का काम है, उसे लागू करना कार्यपालिका का और किसी कानून की संवैधानिकता की व्याख्या करना न्यायपालिका का. सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार के फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को असंवैधानिक घोषित कर दिया. स्पष्ट है कि ऐसे में सरकार के पास दो ही विकल्प हैं, पहला या तो सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करे या अदालत के फैसले का सम्मान करते हुए कानून में संशोधन कर इसे हटा दे.  इस धारा के तहत किसी भी जनप्रतिनिधि को आपराधिक मामले में दोषी ठहराए जाने पर उसकी सदस्यता बरकरार रखते हुए अपील का विशेषाधिकार देती है.

अदालत की आपत्ति इस बात को लेकर है कि यह अधिकार संविधान के भाग 3 में जनता को दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन करता है. किसी सामान्य कर्मचारी को जब सिविल या फौजदारी, किसी भी मामले में आरोपी बनाए जाने मात्र से निलंबित कर दिया जाता है तो फिर नेताओं को यह छूट किस आधार पर दी गई है. सरकार इस सवाल का संतोषजनक जवाब कोर्ट को नहीं दे पाई.

मामले की सुनवाई को कवर रहे पत्रकारों की मानें तो सरकार की ओर से कोर्ट को कोई संतोषजनक जवाब देने की कोशिश ही नहीं की गई. तर्क दिया गया कि कोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए कानून में संशोधन का काम संसद का है यानी परोक्ष रूप से सरकार का है. साथ ही किसी कानून को बनाने या संशोधित करने की समयसीमा के बारे में संविधान मौन है. इसके अलावा हाल ही में केन्द्रीय सूचना आयोग ने सियासी दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में बताते हुए आरटीआई कानून में बदलाव की जरूरत बताई थी. सभी दलों ने एकजुट होकर इसका विरोध किया और सरकार ने आयोग के फैसले को ही प्रभावहीन बनाने के लिए अब अध्यादेश लाने की तैयारी कर ली है.

जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को हटाने के फैसले पर भी सियासी दलों की प्रतिक्रिया ने साफ कर दिया कि इसका हश्र भी वही होने वाला है, जो आरटीआई में संशोधन के सुझाव का होगा. यह कोई नई बात नहीं है, बल्कि पहले भी जब जब विपक्ष कमजोर हुआ, तब सत्तारूढ़ दलों की बेहयाई इसी रूप में उजागर होती रही है.

अतीत को खंगालें तो पता चलेगा कि 1979 में मिनर्वा मिल्स के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के लोकतांत्रिक स्वरूप को चोट पहुंचाने वाले अनुच्छेद 368 के खंड 4 और 5 को असंवैधानिक घोषित कर दिया था. आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन से संविधान में जोड़े गए इन दोनों प्रावधानों को कोर्ट ने संसदीय अधिनायकवाद का प्रतीक तक कह डाला था. इनका मजमून हकीकत को जता भी देता है. इसके बावजूद दोनों प्रावधान आज भी संविधान में बदस्तूर मौजूद हैं.

ब्लॉगः निर्मल यादव

संपादनः अनवर जे अशरफ