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समाज

अपने घरों से बेदखल क्यों होंगे आदिवासी

शिवप्रसाद जोशी
२६ फ़रवरी २०१९

सुप्रीम कोर्ट ने देश के जगंलों से लाखों आदिवासियों की निकासी का आदेश दिया है. आदिवासी संगठन आंदोलित हैं. कुछ पर्यावरणप्रेमी संरक्षणवादी संगठनों ने अतिक्रमण और कब्जे के खिलाफ कोर्ट में जनहित याचिका लगाई थी.

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Familie in Jungal Mahal Indien
तस्वीर: DW/A. Chatterjee

देश के 17 राज्यों के जंगलों से करीब 20 लाख आदिवासियों को बाहर निकालने के इस आदेश से हड़कंप मचा है. याचिका में कहा गया था कि बड़े पैमाने पर लोग जंगलों में अवैध रूप से रह रहे हैं, वनभूमि पर अवैध कब्जे कर लिए गए हैं और इस तरह वन संपदा और पर्यावरण को तबाह कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट में ये मामला पिछले कुछ वर्षों से लंबित था. सरकार ने पिछली सुनवाइयों के दौरान राज्य सरकारों को जंगल में रहने वालों को चिंहित कर सही संख्या अदालत में बताने का आदेश भी दिया था. 20 फरवरी को सार्वजनिक हुए इस आदेश के तहत जनजातियों, आदिवासियों और गैर-जनजातीय वनवासी समूहों को जंगल से निकालने का काम 27 जुलाई से शुरू होगा और उसी दिन संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को कोर्ट में एफिडेविट जमा कराने होंगे. वैसे ये फैसला देने वाला सुप्रीम कोर्ट अपने पूर्व के कुछ फैसलों खासकर 2011 के एक फैसले में आदिवासी समुदायों के उत्पीड़न पर फटकार लगा चुका है और जंगलों पर उनका जायज हक भी मान चुका है.

बहरहाल नए अदालती आदेश के साए में लाखों आदिवासी, वनवासी और जनजातीय परिवारों पर बेदखली का खतरा मंडरा रहा है. जबकि माना जाता है कि राज्यों की भेजी संख्या में हजारों लोगों के दावे छूटे हुए हो सकते हैं क्योंकि गिनती और पहचान की प्रक्रिया में भी गड़बड़, कमियों और दावे से इंकार की शिकायतें सामने आती रही हैं. आदिवासी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक वनरिहाइश के 42.19 लाख दावे किए गए थे जिनमें से 18.89 लाख ही स्वीकार किए गए हैं. यानी 23 लाख से ज्यादा आदिवासी और वनवासी परिवारों पर तलवार लटकी है. ये संख्या, मौजूदा कोर्ट आदेश के तहत निकालने जाने वाले परिवारों से दुगुनी क्या, उससे भी ज्यादा है. लोकसभा में 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. आम चुनावों के लिहाज से कोर्ट का फैसला सरकारों और राजनीतिक दलों के लिए सरदर्द बन सकता है, इसलिए कांग्रेस और बीजेपी शासित राज्यों ने आननफानन में बयान जारी किए और कोर्ट मे गुहार लगाने की बातें कहीं. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तो पुनर्विचार याचिका डालने का एलान कर चुकी है.

Wasserquelle Jungal Mahal Indien
जंगल के भरोसे चलती हैं लाखों जिंदगियांतस्वीर: DW/A. Chatterjee

जानकारों का मानना है कि ये मामला आदिवासी अधिकारों बनाम कट्टर संरक्षणवादियों के हठ, पर्दे के पीछे सक्रिय कॉरपोरेट, निर्माण और निवेश लॉबी, वन प्रशासनिक मशीनरी की सुस्ती और अनदेखी, कॉरपोरेट से कथित मिलीभगत, कानून के लूपहोल और सरकारों की उदासीनता का भी है. 2006 में जब अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों के हितों और अधिकारों की सुरक्षा के लिए वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) लाया गया था तो इस कानून का विरोध करने वालों में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, और वाइल्डलाइफ फर्स्ट जैसे पर्यावरणप्रेमी संगठन भी थे. उनके मुताबिक ये कानून भारत के बदहाल वनक्षेत्रों को और अधिक वलनरेबल बना देगा और अतिक्रमण के लिए खुला छोड़ देगा. 2007 में वन अधिकार बिल कानून के रूप में अमल में तो आया लेकिन इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अलग अलग जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं.

जबकि एफआरए लाया ही इसलिए गया था कि आदिवासियों के साथ हुई ऐतिहासिक नाइंसाफी को दुरुस्त किया जा सके. इसके मुताबिक जो व्यक्ति पारंपरिक रूप से वनों में या वनभूमि पर 75 वर्षों से अधिक समय से रहता आया हो और अपनी जीविका के लिए वनउपज पर ही निर्भर हैं, वे उन वनक्षेत्रों के असली और उपयुक्त दावेदार हैं. कानून में सामुदायिक वन संसाधनों की सुरक्षा, संरक्षण और प्रबंधन के अतिरिक्त सभी तरह के वनग्रामों और ठिकानों को राजस्व ग्राम में तब्दील करने का अधिकार भी शामिल हैं. एफआरए के तहत ग्राम संभाओं को कार्यदायी और न्यायिक शक्तियां भी हासिल हैं.

सरकारें इस कानून की उपेक्षा भी करती आई हैं. ये एक हाथ से देने और दूसरे हाथ से वापस ले लेने की तरह हुआ. आदिवासियों संगठनों का आरोप है कि राज्य सरकारों ने चिंता तो दूर अदालतों में और शीर्ष अदालत में अपने लोगों की सही पैरवी नहीं की, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 2016 में जो दावे भेजे भी गए वे आधेअधूरे थे और कई मामलों में तो प्रक्रियात्मक गलतियां पाई गईं. अपने ही नागरिकों के अधिकारों के प्रति ऐसी बेरुखी, आज के मीडिया हाहाकार और एजेंडा पोषित मुद्दों के भीषण कोलाहल में भला कैसे दिखाई देगी. आदिवासी संगठनों के मुताबिक उनके पास सड़कों पर उतरने के अलावा कोई चारा नहीं है.

पर्यावरण संगठनों को अपनी भूमिका और पर्यावरण को लेकर अपनी समझ स्पष्ट करनी चाहिए कि वे आखिर बिना आदिवासियों के किस तरह के जंगल के संरक्षण की वकालत करते हैं. क्या वे आदिवासियों का जंगल के साथ जैविक संबंध से अनभिज्ञ हैं या वे खोखले शुद्धतावादी नजरिए से पेड़ पौधों और जंगल के हिमायती हैं? या बात कुछ और है? ये सही है कि जंगल अतिक्रमण और अवैध कारगुजारियों के शिकार हैं. वन तस्करों से लेकर लकड़ी, खनन और भू माफिया के सक्रिय होने की पुष्ट अपुष्ट खबरें आती रही हैं. किंचित कार्रवाइयां भी हुई हैं लेकिन कब्जे और अतिक्रमण की वारदातें हो ही रही हैं. जंगल सिकुड़ रहे हैं और रही सही कसर विकास के नाम पर अंधाधुंध निर्माण कार्यों से पूरी हो रही है. बड़े पैमाने पर पेड़ कट रहे हैं और जंगलों से उनके मूल निवासी बेदखल किए गए हैं. असली अपराधियों की शिनाख्त और धरपकड़ होनी चाहिए, वन सुरक्षा का तंत्र मुस्तैद और मजबूत बनाए जाने की जरूरत है, अकेले नौकरशाही और कथित कड़ी कार्रवाई से तो ये संभव नहीं, इसमें जंगल के मूल निवासियों को भी शामिल किया जाना चाहिए, वनों के असली रखवाले वहीं है न कि सरकार द्वारा बनाया और फैलाया गया तंत्र. उन्हें न सिर्फ विश्वास में लेना चाहिए, बल्कि उनके कौशल विकास और व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए रास्ते भी खोलने चाहिए.

ध्यान रहे कि कट्टर संरक्षणवाद में नहीं, जंगल सहजीविता में ही पनप सकता है. आदिवासी और जंगल एक दूसरे के पूरक हैं. जंगल उनके लिए एकदिवसीय शौक या मौज नहीं है, जंगल उनके घर हैं और ये पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा है. अधिकारी तंत्र और सरकार को अपने इन मुख्यधारा से अलगथलग नागरिक समुदायों के लिए फसिलटैटर यानी मददकर्ता की भूमिका निभानी चाहिए. विंडबना ये है कि आज सरकारें, कॉरपोरेट और अन्य निवेश शक्तियों के लिए मददकर्ता की भूमिका में तत्परता से दिख जाती हैं लेकिन जंगल के आदिम समुदायों के प्रति अपने दायित्व से विमुख दिखती हैं.

(भारत में ये भाषाएं दम तोड़ रही हैं)