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अपने ही खेत की दवाई उगाई

१७ दिसम्बर २०१०

कहते हैं कि मन में लगन और इरादे बुलंद हों तो कोई काम असंभव नहीं है. उड़ीसा के पिछड़े समझे जाने वाले कटक जिले में कोचिला नगांव के लोगों ने इस कहावत को एक बार फिर चरितार्थ कर दिखाया है.

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तस्वीर: Prabhakar Mani Tewar

कुछ साल पहले तक यह गांव बहुत ही ज्यादा पिछड़ा हुआ था. लेकिन अब गांव वालों की पहल से तस्वीर बदल गई है. दो हजार की आबादी वाले आदिवासियों के इस गांव में स्वास्थ्य सेवाओं का बेहद अभाव है. सबसे नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी यहां से पांच किमोलीमटर दूर मंगराजपुर में है. ठीक-ठाक अस्पताल की तलाश में कोई 20 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. लेकिन वहां तक जाने के लिए यातायात का कोई समुचित साधन नहीं है. इस गांव से बाहर जाने के लिए पांच-पांच घंटे के अंतराल पर चलने वाली एकमात्र बस ही अकेला साध है. वह भी अक्सर खराब रहती है.

जहां चाह वहां....

गंव में हर साल मलेरिया और दूसरी छोटी-मोटी बीमारियों से कई लोग मर जाते थे. आसपास इलाज की कोई सुविधा थी नहीं और दूर जाने के लिए न तो साधन था और न ही पैसे. ऐसे में गांव वालों ने खुद ही इस समस्या का समाधान निकाल लिया है. और वह समाधान है आयुर्वेद का. गांव के लोग अब आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के सहारे ही कई बीमारियों का घर बैठे इलाज कर लेते हैं. इस गांव की रहने वाली सरिता विश्वाल बताती है कि गांव के नजदीक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं है. नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र भी पांच किलोमीटर दूर है. इसलिए गांव वालों ने खुद पहल कर आयुर्वेद का सहारा लेने का फैसला किया.

Frauen in Kochila
गांव में कोई डॉक्टर नहींतस्वीर: Prabhakar Mani Tewar

इसकी शुरूआत कुछ साल पहले हुई थी. संबंध नामक एक गैर-सरकारी संगठन ने गांव वालों को आयुर्वेदिक इलाज का तरीका बताया था और साथ ही उनको कुछ पौधे भी दिए थे. उसके बाद गांव वालों ने अपने खेतों और बागानों में इन पौधों की खेती शुरू की. अब बीते दो साल से मलेरिया और पीलिया समेत तमाम बीमारियों के इलाज के लिए गांव वाले स्वास्थ्य केंद्र का रुख ही नहीं करते. अब उनके पास ही इनका इलाज मौजूद है.

आयुर्वेद ही क्यों

आखिर गांव वालों में आयुर्वेद के प्रति झुकाव कैसे हुआ. इस सवाल पर किशन नायक कहते हैं---आयुर्वेद के इस्तेमाल की वजह यह है कि हमारे पास अंग्रेजी इलाज के लिए पैसे नहीं हैं. यहां गांव के आसपास कोई स्वास्थ्य केंद्र या दवाखाना नहीं हैं. अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र काफी दूर हैं और वहां तक जाने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है. अगर किसी मरीज को इमरजेंसी में डाक्टर के पास ले जाना हो तो तब भी हमारे पास कोई साधन नहीं है.

लोगों ने अब अपने घर के सामने ही जड़ी-बूटियां उगा ली हैं. रानी बेहरा एक पौधे पर हाथ रखते हुए कहती है कि इस पौधे का नाम मोंजी गाडी है. हम चावल धोने के बाद बचे पानी के साथ इन पत्तियों को पीस कर घोल बना लेते हैं. इस दवा का इस्तेमाल पीलिया के इलाज में किया जाता है. तीन दिन यह दवा पीने से पीलिया के मरीज ठीक हो जाते हैं. इसी तरह मेरीगोल्ड के पत्तों को पीस कर लगाने से किसी भी तरह का घाव बहुत जल्दी भर जाता है.

सरिता को खुद सांस लेने में तकलीफ होती है. लेकिन किसी पारंपरिक चिकित्सक के पास जाने की बजाय वह बासंगा के फूल से अपना इलाज कर रही है. इस पौधे की पत्तियों या फूल को शहद के साथ मिला कर लेने से उसे काफी फायदा हो रहा है. सरिता कहती है कि मैं भी इसी समुदाय से हूं. इसलिए मैं भी अपना और घरवालों का इलाज इसी तरीके से करती हूं.

गांव की ऊषा रानी नायक तो अपने बच्चों का इलाज खुद करती है. जाड़े में बच्चों को सर्दी-खांसी होना आम है. लेकिन ऊषा घर पर ही दवा बना कर इस मर्ज का इलाज कर लेती है. ऊषा कहती है कि मैंने अपने बागान में आयुर्वेदिक दवाओं के पौधे लगाए हैं. मैं जाड़ों में बासंगा की पत्तियों को पीस कर उसका रस बच्चों को पिलाती हूं. इससे उनको सर्दी-खांसी नहीं होती. यह जाड़ों में कवच का काम करता है. सर्दी होने पर इस दवा की दो खुराक ही इस बीमारी को दूर कर देती है.

गांव वालों की इस अनूठी पहल और उनके साहस को देख कर इस दुर्गम गांव के पिछड़ेपन का कोई अहसास ही नहीं होता. गांव के लोग चुपचाप कामयाबी और आत्मनिर्भरता की नई इबारत लिख रहे हैं.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा एम

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