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अफस्पा मामले में सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं निगाहें

प्रभाकर मणि तिवारी
४ सितम्बर २०१८

भारत के कई राज्यों में उग्रवाद से निपटने के लिए लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के 60 साल के इतिहास में पहली बार सात सौ अधिकारियों और जवानों ने इसके प्रावधानों के विरोध में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

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Symbolbild Indien Kaschmir Soldaten getötet
तस्वीर: Tauseef Mustafa/AFP/Getty Images

देश में पहली बार 11 सितंबर 1958 को अफस्फा लागू किया गया था. इस अधिनियम के तहत सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार मिले हैं. पूर्वोत्तर के मणिपुर जैसे राज्यों में अकसर इन अधिकारों के दुरुपयोग के मामले सुर्खियां बनते रहे हैं. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में मणिपुर में उक्त कानून की आड़ में मुठभेड़ के नाम पर होने वाली हत्याओं के मामले की सुनवाई चल रही है.

सेना के जवानों ने शीर्ष अदालत में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर कर मणिपुर और जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने को चुनौती दी है. लेकिन सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत भी अधिकारियों और जवानों के इस फैसले से काफी नाराज हैं. उन्होंने इन याचिकाओं के औचित्य पर सवाल उठाया है.

क्या है अफस्पा?

सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) नामक यह कानून पूर्वोत्तर इलाके में तेजी से पांव पसारते उग्रवाद पर काबू पाने के लिए सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देने के मकसद से बनाया गया था. इसके तहत सुरक्षा बल के जवानों को किसी को गोली मार देने का अधिकार है और इसके लिए उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता. इस कानून के तहत सेना किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट हिरासत में लेकर उसे अनिश्चित काल तक कैद में रख सकती है. 11 सितंबर 1958 को बने इस कानून को पहली बार नागा पहाड़ियों में लागू किया गया था जो तब असम का ही हिस्सा थीं. उग्रवाद के पांव पसारने के साथ इसे धीरे-धीरे पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में लागू कर दिया गया.

इस विवादास्पाद कानून के दुरुपयोग के खिलाफ बीते खासकर दो दशकों के दौरान तमाम राज्यों में विरोध की आवाजें उठती रहीं हैं. लेकिन केंद्र व राज्य की सत्ता में आने वाले सरकारें इसे खत्म करने के वादे के बावजूद इसकी मियाद बढ़ाती रही हैं. मणिपुर की महिलाओं ने इसी कानून की आड़ में मनोरमा नामक एक युवती के सामूहिक बलात्कार व हत्या के विरोध में बिना कपड़ों के सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था और उस तस्वीर ने तब पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. लौह महिला के नाम से मशहूर इरोम शर्मिला इसी कानून के खिलाफ लंबे अरसे तक भूख हड़ताल कर चुकी हैं. लेकिन मणिपुर में इसकी मियाद लगातार बढ़ती रही है. आखिर हार कर शर्मिला ने भी अपनी भूख हड़ताल खत्म कर दी थी.

ताजा मामला

सेना के लगभग चार सौ अधिकारियों व जवानों ने बीते शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इससे पहले भी लगभग साढ़े तीन सौ अधिकारियों ने एक अलग याचिका दायर की थी. उनकी दलील है कि अफस्पा में उनको सजा से छूट मिली है. लेकिन उपद्रव वाले इलाकों में इस कानून के तहत अपनी ड्यूटी करने की वजह से उनको सजा दी जा रही है. उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं. याचिकाओं में दलील दी गई है कि इससे सेना और सुरक्षा बलों का मनोबल गिरेगा.

सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने मणिपुर में सुरक्षा बलों की ओर से मानवाधिकार उल्लंघन की डेढ़ हजार शिकायतों की जांच के लिए बीते साल एक विशेष टीम का गठन किया था और प्राथमिक जांच के दौरान सही पाए जाने वाले मामलों की जांच सीबीआई से कराने का निर्देश दिया था. शीर्ष अदालत के इस निर्देश को गड़बड़ी वाले इलाकों में तैनात सुरक्षा बलों के लिए एक जबरदस्त धक्का माना गया. इसने अफस्पा के तहत उनको मिले सुरक्षा कवच को काफी हद तक नरम बना दिया. मणिपुर के अलावा जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजों से निपटने के तरीकों और एक पत्थरबाज को मानव शील्ड बनाने के मामले में मेजर गोगोई के खिलाफ होने वाली कार्रवाई ने भी इन जवानों और अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट में जाने पर मजबूर कर दिया है.

वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि किसी भी कानून के तहत सुरक्षा बल के अधिकारियों व जवानों को सजा से पूरी तरह छूट की अवधारणा सही नहीं है. उनकी किसी भी गतिविधि को आपराधिक अदालत में चुनौती दी जा सकती है. वैसे, अफस्पा अपने जन्म के समय से विवादों में रहा है. अक्सर इसके प्रावधानों के दुरुपयोग की शिकायतें सामने आती रही हैं. खासकर मणिपुर में इसके खिलाफ आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है. मेघालय में बीते दिनों इसे हटा लिया गया था. लेकिन मणिपुर और असम के अलावा अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में अब भी यह लागू है. असम में तो नेशनल रजिस्टर आप सिटीजंस (एनआरसी) की प्रक्रिया पूरी करने के लिए इसे इसी सप्ताह छह महीने के लिए बढ़ा दिया गया है.

सेना प्रमुख की नाराजगी

सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने सात सौ से ज्यादा अधिकारियों व जवानों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने पर भारी नाराजगी जताते हुए इसके औचित्य पर सवाल उठाया है. कई अन्य पूर्व सेना प्रमुखों ने भी इसे अनुशासनहीनता बताते हुए इन याचिकाओं को तुरंत वापस लेने की मांग की है. रावत का सवाल है कि सेना फर्जी मुठभेड़ और मानव शील्ड जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट में लड़ रही है. ऐसे में याचिकाकर्ता अगर केस हार गए तो क्या होगा?

अफस्पा को दशकों से ऐसा कानून माना जाता था जिसके तहत सुरक्षा बलों को इलाके में शांति बनाए रखने के लिए कुछ भी करने की छूट थी और उसके खिलाफ किसी अदालत में कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता था. लेकिन दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि सुरक्षा बलों के खिलाफ मामले दर्ज करने पर कोई पाबंदी नहीं है. लेकिन केंद्र सरकार से अनुमति मिलने के बाद ही ऐसे मामलों में सुनवाई शुरू हो सकती है. वैसे यह बात दीगर है कि केंद्र ने अब तक ऐसे एक भी मामले को हरी झंडी नहीं दिखाई है.

पर्यवेक्षकों का कहना है कि इन दो अलग-अलग याचिकाओं की सुनवाई और शीर्ष अदालत के फैसले का अफस्पा के प्रावधानों पर दूरगामी असर होगा. रक्षा विशेषज्ञ हीरेन गोहांई कहते हैं, इन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला अफस्पा में संशोधन की राह खोल सकता है. लेकिन सरकार और सैन्य प्रतिष्ठान के लिए इन अफसरों का सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाना एक तरह से विद्रोह ही है और इसके दूरगामी नतीजे हो सकते हैं. उनका कहना है कि जम्मू-कश्मीर व मणिपुर जैसे राज्यों में इसका असर सबसे ज्यादा होगा. अब तमाम निगाहें इन दोनों याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई और उसके फैसले पर टिकी हैं.

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