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अब मुंबई हमले पर सबूत सार्वजनिक कर दे भारत

कुलदीप कुमार१३ मार्च २०१५

लखवी को रिहा करने के हाई कोर्ट के आदेश पर कुलदीप कुमार का कहना है कि भारत को अब मुबई हमलों से जुड़े सबूतों को दुनिया के सामने रख देना चाहिए जिससे कि पाकिस्तान पर दबाव पड़ सके.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

इस्लामाबाद हाईकोर्ट ने लश्कर-ए-तैयबा के मिलिटरी कमांडर जकी उर रहमान लखवी को रिहा करने का आदेश दे दिया है जिस पर भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि पाकिस्तान की जांच एजेंसियों ने अदालत के सामने सुबूत ठीक ढंग से पेश नहीं किए और यह पाकिस्तान सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह लखवी को जेल में रखे. अदालत के आदेश पर भारत सरकार को भले ही आश्चर्य या निराशा हुई हो लेकिन उन लोगों को कतई नहीं हुई जो पाकिस्तान की राजनीति, वहां की सरकार के आतंकवाद के प्रति रुख और भारत के प्रति शाश्वत शत्रुता की नीति से परिचित हैं.

यहां सवाल यह भी है कि क्या लखवी के जेल के भीतर और बाहर रहने में कोई फर्क भी है? कुछ ही समय पहले बीबीसी की एक रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया था कि जेल में लखवी को वे सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं जो उसे जेल के बाहर होतीं. उसके पास टेलिविजन और कई मोबाइल फोन हैं, उससे मिलने दिन या रात किसी भी समय कितने भी व्यक्ति जेल के भीतर जा सकते हैं और उन पर किसी तरह की कोई निगरानी भी नहीं रखी जाती. ऐसी जेल के भीतर होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है? और यदि पड़ता है तो क्या वह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं है?

Indien - mutmaßlicher Attentäter Zaki-ur-Rehman Lakhvi
तस्वीर: Reuters/A. Naqash

पाकिस्तान सरकार की आतंकवाद के प्रति नीति में अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है. वह अभी तक ‘अच्छे' और ‘बुरे' आतंकवादियों के बीच फर्क करती है. हाफिज सईद का संगठन जमात-उद-दावा (जो लश्कर-ए-तैयबा का ही असैनिक संस्करण है) और मौलाना मसूद अजहर का जैश-ए-मुहम्मद जैसे भारत के खिलाफ आतंकवादी कार्रवाई करने वाले संगठन उसकी नजर में ‘रणनीतिक परिसंपत्तियां' हैं जिन्हें वह किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहती. उधर भारत सरकार अभी तक यह तय नहीं कर पाई है कि उसे पाकिस्तान के प्रति क्या नीति अपनानी है? चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हो या मनमोहन सिंह की या फिर अब नरेंद्र मोदी की, पाकिस्तान के प्रति ढुलमुल रवैया ही उसकी नीति रहा है. नतीजतन कभी उसके साथ वार्ता तोड़ दी जाती है, फिर कुछ समय बाद बिना कोई कारण बताए फिर से शुरू कर दी जाती है. और यह दुष्चक्र चलता रहता है. पिछले साल भारत ने पाकिस्तान से सिर्फ इस कारण संवाद तोड़ दिया क्योंकि पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने सरकार के मना करने के बावजूद हुर्रियत नेताओं से मिलने का अपना फैसला नहीं बदला. लेकिन अब संवाद फिर से शुरू किया जा रहा है. इस ढुलमुल रवैये के कारण पाकिस्तान सरकार का मनोबल बढ़ता है और उसका यह विश्वास और पुख्ता हो जाता है कि भारत थोड़ा-बहुत शोर मचाने के सिवा कुछ नहीं कर सकता.

भारत पाकिस्तान से लखवी को सौंपने की मांग करता आ रहा है. लेकिन स्थिति यह है कि लखवी को सौंपना तो दूर, पाकिस्तान उसे लखवी की आवाज के नमूने तक देने को तैयार नहीं जिनके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हमला करने वाले आतंकवादियों से फोन पर बात करने वाला व्यक्ति लखवी ही था. भारत ने पाकिस्तान के न्यायिक आयोग, लखवी के वकीलों और अभियोजन पक्ष के वकीलों को पकड़े गए आतंकवादी अजमल कसब से पूछताछ करने की इजाजत नहीं दी थी. ऐसा क्यों किया गया, अभी तक यह रहस्य ही है. उधर पाकिस्तान में एक अध्यापक ने, जिसने कसब को पढ़ाया था, यह दावा कर डाला है कि वह तो जिंदा है और उसने उसे हाल ही में पाकिस्तान में ही देखा था. इससे लखवी के खिलाफ केस अपने-आप ही कमजोर पड़ गया, वह भी तब जब पुलिस और जांच एजेंसियां अदालत के सामने ऐसे अकाट्य प्रमाण रखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही थीं जिनके आधार पर लखवी पर आरोप सिद्ध किए जा सकें.

ऐसे में भारत के पास क्या विकल्प है? पहला विकल्प तो अंतर्राष्ट्रीय जनमत बनाना है ताकि विश्व समुदाय के सामने पाकिस्तान और आतंकवाद के बीच के गहरे रिश्ते की असलियत उजागर की जा सके और पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सके. इसके लिए उसे चाहिए कि उसके पास जो भी प्रमाण हैं, उन्हें वह दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दे ताकि पाकिस्तान उनका प्रतिवाद करने पर मजबूर हो. दूसरा विकल्प यह है कि वह किसी भी सूरत में पाकिस्तान के साथ संवाद बंद न करे क्योंकि अतीत में कई बार ऐसा किया गया और नतीजा कुछ भी नहीं निकला. तीसरा विकल्प यह है कि वह ऐसे पुख्ता इंतजाम करे ताकि यहां भविष्य में पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के लिए अपनी काररवाइयों को अंजाम देना असंभव हो जाए. लेकिन क्या वह ऐसा कर पाएगा?