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खान पान पर राजनीति

११ सितम्बर २०१५

खान-पान अब निजी चुनाव की चीज न रहकर सरकार द्वारा तय की जाने वाले चीज बन गई है. भारत शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा लोकतंत्र है जहां लोगों को अपनी इच्छा से खाने-पीने की आजादी खोनी पड़ रही है.

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Kinder im Iran /Fastfood
तस्वीर: MEHR

लोकतंत्र में चुनाव के जरिए ही सत्ता में आया जाता है और चुनाव जीतने के लिए वोटों की जरूरत पड़ती है. इसलिए सभी राजनीतिक दल किसी न किसी तरह से अपना जनाधार बढ़ाने और उसे पक्का करने की जुगत में रहते हैं. अस्मिता की राजनीति इस काम में बहुत मददगार सिद्ध होती है. यह राजनीति जातिवाद, क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता जैसे अनेक रूपों में व्यक्त होती है लेकिन उसका मूल आधार एक समुदाय के लोगों की अस्मिता को इस तरह उभारना है ताकि उन्हें किसी दूसरे समुदाय के लोगों की अस्मिता से खतरा महसूस होने लगे. इन दिनों यह राजनीति खान-पान को नियंत्रित करने के प्रयासों के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है.

"मुसलामानों के लिए तो पाकिस्तान है"

गौहत्या हिंदुओं के लिए धार्मिक भावना का विषय रहा है और केरल तथा उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में उस पर कई तरह की बंदिशें हैं. मसलन पश्चिम बंगाल में केवल उन्हीं गायों को मारा जा सकता है जिन्हें इसके लिए योग्य होने का प्रमाणपत्र मिला हो. लेकिन अब वहां भी भारतीय जनता पार्टी कोशिश कर रही है कि गाय को मारने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाए. हरियाणा में बीजेपी की सरकार गाय मारने वाले के लिए दस वर्ष की जेल की सजा का प्रावधान करने में व्यस्त है. राजस्थान में सरकार ने जैन पर्व पर्यूषण के दौरान तीन दिन के लिए सभी तरह के मांस की बिक्री पर पाबंदी लगा दिया है.

इस मुद्दे पर महाराष्ट्र की सरकार में शामिल बीजेपी और शिवसेना खुलकर एक-दूसरे के सामने आ गई हैं और शिवसेना ने मराठी बनाम गुजराती का पुराना विवाद फिर से खड़ा कर दिया है. उसके मुखपत्र 'सामना' ने तो जैन समुदाय को यह चेतावनी भी दे दी है कि कम-से-कम मुसलमानों को तो जाने के लिए पाकिस्तान है, मगर वे कहां जाएंगे? जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने भी एक 82 वर्ष पुराने कानून का हवाला देकर गौहत्या पर प्रतिबंध को लागू करने का निर्देश दिया है जिसके खिलाफ वहां मुस्लिम कट्टरपंथियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है.

लोकतंत्र के लिए घातक प्रवृत्ति

भारत के अनेक भागों में यह हो रहा है. इसके पीछे धार्मिक भावना आहत होने का तर्क है जिसके आधार पर पुस्तकों, चित्रों और फिल्मों पर प्रतिबंध लगता है, स्वतंत्र विचारकों की हत्या होती है (पिछले एक वर्ष के दौरान महाराष्ट्र और कर्नाटक में तीन ऐसी हत्याएं हो चुकी हैं) और सरकार लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं का विस्तार करने के बजाय उन्हें संकुचित करने के प्रयासों का समर्थन करती है.

किसी शाकाहारी की धार्मिक भावना तभी आहत हो सकती है जब कोई उसे जबर्दस्ती मांस खिलाए. लेकिन यदि दूसरे खाते हैं और तब भी उसकी धार्मिक भावना आहत होती है, तो यह एक अस्मिता को दूसरी पर तरजीह देने के बराबर होगा. लोकतंत्र के लिए यह घातक प्रवृत्ति है. लेकिन वोटों की राजनीति के फलने-फूलने के लिए बेहद उर्वर भूमि.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार