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अब सर्वोच्च न्यायपालिका पर भी राजनीति

मारिया जॉन सांचेज
२३ अप्रैल २०१८

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया है. न्यायपालिका अंदर से बंटी है और उस पर राजनीतिक दांवपेंच खेले जा रहे हैं, कुलदीप कुमार उसे भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर संकट की घड़ी बताते हैं.

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Indien Oberster Gerichtshof in Neu-Delhi
तस्वीर: Imago/Hindustan Times/S. Mehta

लोकतंत्र संविधान और संवैधानिक मूल्यों एवं प्रक्रियाओं के आधार पर चलता है. जितना महत्व लिखित संविधान होता है उतना ही स्थापित परंपराओं का भी माना जाता है. विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र ब्रिटेन में तो लिखित संविधान ही नहीं है और सभी कुछ स्थापित परंपराओं के अनुसार होता है. लेकिन ब्रिटेन और भारत जैसे अन्य देशों के बीच बुनियादी फर्क यह है कि जहां ब्रिटेन में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ी गयी लड़ाई का एक लंबा इतिहास है और लोकतंत्र एवं समाज का सदियों तक एक दूसरे के साथ गुंथ कर विकास हुआ है, वहीं भारत में इसे आजादी के बाद अपनाया गया. जब भारत में वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गयी तब विश्व के अनेक देशों तक में यह नहीं थी. लेकिन देश में अशिक्षा और गरीबी, सामंती मूल्य और जीवनपद्धति, जातिव्यवस्था और भ्रष्टाचार का माहौल था. इसमें जिस प्रकार का लोकतंत्र पनपा उसकी शक्ल पश्चिम के विकसित देशों की शक्ल से बिलकुल अलग थी. आज आजादी के सत्तर साल बाद इस अंतर का अहसास और तीव्र होता जा रहा है क्योंकि लोकतंत्र पर केवल शाब्दिक अर्थों में अमल किया जा रहा है, और उसकी आत्मा को कुचला जा रहा है. यानी भारतीय लोकतंत्र अधिकांशतः अपने रूप में ही लोकतंत्र है, अंतर्वस्तु में नहीं. 

पिछले कुछ समय से न्यायपालिका पर छिड़ा विवाद और संसद की कार्यवाही इस कड़वी सचाई के सबसे गंभीर और ताजातरीन उदाहरण हैं. सरकार ऐसे विधेयक को जिसे पारित करवाना मुश्किल हो, धन विधेयक में तब्दील करके संसद में पारित करा लेती है. लोकसभा की अध्यक्ष सारी पिछली परंपराओं को ताक पर रखकर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को पेश तक नहीं होने देतीं, जबकि स्थापित परंपरा यह है कि सारा कामकाज रोककर उसे स्वीकार किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश खंडपीठ गठित करने और यह तय करने के अपने अधिकार का कि कौन सा मुकदमा कौन जज सुनेंगे ऐसे मनमाने ढंग से इस्तेमाल करते हैं कि भारत के इतिहास में पहली बार चार वरिष्ठतम जज पहले उन्हें पत्र लिख कर असंतोष जाहिर करते हैं और फिर बाकायदा संवाददाता सम्मेलन बुलाकर उसे सार्वजनिक करते हैं लेकिन महीनों बीत जाने के बाद भी न प्रधान न्यायाधीश अपनी कार्यशैली बदलते हैं, न उनकी शिकायतों को दूर करने के लिए कोई कदम उठाते हैं.

Dipak Mishra Oberster Richter von Indien
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रातस्वीर: Imago/Hindustan Times

उनके इस रवैये से क्षुब्ध 64 विपक्षी सांसद राज्यसभा के सभापति को, जो देश के उपराष्ट्रपति भी हैं, प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव सौंपते हैं. संवैधानिक व्यवस्था यह है कि सभापति को विधि विशेषज्ञों के साथ सलाह-मशविरा करने के बाद इसे स्वीकार या अस्वीकार करने का पूरा अधिकार है. स्वीकार करने की स्थिति में एक जांच समिति बनायी जाती है जो आरोपों की जांच करके तय करती है कि प्रस्ताव पर आगे कार्रवाई की जाए या नहीं. यह पहला अवसर था जब देश के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था. लेकिन सभापति एम. वेंकैया नायडू कुछ ही घंटों के भीतर उस पर विचार करके उसे खारिज कर देते हैं. अब विपक्ष इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की सोच रहा है, उसी सुप्रीम कोर्ट में जिसके प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ़ यह महाभियोग प्रस्ताव है. लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष और स्वयं मशहूर वकील रहे सोमनाथ चटर्जी ने नायडू के फैसले की आलोचना की है.

फाली नरीमन, सोली सोराबजी और उपेंद्र बक्षी जैसे जाने-माने विधिवेत्ताओं ने प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने को पूरी न्यायपालिका पर प्रहार बताया है और इसकी आलोचना की है. लेकिन किसी ने भी यह नहीं सुझाया कि यदि प्रधान न्यायाधीश किसी की न सुने और मनमाने ढंग से काम करे तो उस पर किस तरह से अंकुश लगाया जा सकता है. प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का अपना इतिहास भी सत्ता में रहते हुए न्यायपालिका की स्वतंत्रता में क़तर-ब्यौंत के प्रयास करते रहने का रहा है. महाभियोग प्रस्ताव के सबसे बड़े समर्थक और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने ही सुप्रीम कोर्ट के जज वी. रामास्वामी के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया था. अब कांग्रेस और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी "संविधान बचाओ" अभियान छेड़ रहे हैं. आगे का रास्ता स्पष्ट नहीं है लेकिन यह जरूर स्पष्ट है कि भारतीय लोकतंत्र केवल अपने संकीर्ण स्वार्थों को तरजीह देने वाली सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों की दलगत राजनीति का शिकार हो गया है और उसे संभाले रखने वाला स्तंभ न्यायपालिका खुद अपने रास्ते से भटक गया है. यह एक भयावह स्थिति है.