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असम में एनआरसी पर बढ़ता विवाद

प्रभाकर मणि तिवारी
१० अप्रैल २०१७

असम में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजंस (एनआरसी) को अपडेट करने के मुद्दे पर विवाद लगातार बढ़ रहा है. अब इस काम को पूरा करने की सीमा बढ़ा कर दिसंबर तक कर दी गई है.

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Indien Politiker Sarbananda Sonowal
तस्वीर: Imago/Hindustan Times

असम में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजंस का काम पूरा न होने तक, अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने राज्य में आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया रोकने की मांग की है. उसकी दलील है कि आधार कार्ड की सहायता से कई विदेशी लोग भी असम का नागरिक होने का दावा कर सकते हैं. एनआरसी की वजह से राज्य में वैध तरीके से रहने वाले लाखों मुसलमानों के भी राज्य से बाहर निकाले जाने का खतरा पैदा हो गया है. इससे वे लोग दहशत में जी रहे हैं.

आधार कार्ड पर विवाद

केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आधार कार्ड को भले ही अनिवार्य बना दिया है, असम में अब तक महज छह फीसदी लोगों का ही कार्ड बन सका है. अब ताकतवर छात्र संघ (आसू) ने आधार कार्ड बनाने की प्रक्रिया रोकने की मांग उठायी है. इससे आम लोगों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. आसू की दलील है कि गैरकानूनी तरीके से सीमा पार से यहां आने वाले लोग भी आधार कार्ड बनवा कर असम का नागरिक होने का दावा कर रहे हैं. आसू अध्यक्ष दीपक कुमार नाथ कहते हैं, "राज्य में एनआरसी को अपडेट करने के लिए जहां आधार के आंकड़ों का सहारा लेना पड़ रहा है वहां यह प्रक्रिया रद्द कर देनी चाहिए." वह कहते हैं कि नागरिकता के लिए कट ऑफ वर्ष 1971 ही रखा जाना चाहिए. यानी उससे पहले आने वाले लोगों को ही एनआरसी में शामिल किया जा सकता है.

पुरानी समस्या
असम में बांग्लादेश से घुसपैठ की समस्या बहुत पुरानी और जटिल है. यह राज्य घुसपैठ के मुद्दे पर लंबा आंदोलन झेल चुका है. आसू की अगुवाई में अस्सी के दशक में हुए उस आंदोलन की कोख से असम गण परिषद (अगप) का जन्म हुआ था. उस आंदोलन के बाद हुए चुनावों में अगप को भारी बहुमत मिला था और प्रफुल्ल कुमार महंत राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे. उसके बाद से ही रह रह कर यह मुद्दा उठता रहा है.

Indien Assam Nagaland Konflikt 20. August 2014
असम में 2014 में लोगों पर पुलिस के अत्याचार के खिलाफ तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का पुतला जलाते आसू सदस्य. तस्वीर: picture alliance/ZUMA Press

दरअसल, घुसपैठ की इस समस्या की जड़ें देश की आजादी के पहले तक फैली हैं. असम के प्रमुख इतिहासकार अमलेंदु दत्त कहते हैं, "वर्ष 1911 में ब्रिटिश जनगणना आयुक्तों ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन पूर्वी बंगाल से राज्य में बड़े पैमाने पर लोगों के आने का जिक्र किया था. उसके एक साल बाद सिलहट डिवीजन को बंगाल से काट कर असम का हिस्सा बना दिया गया. उसके बाद मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ने लगी. उसी समय से हिंदू और मुस्लिम तबके के बीच झड़पों की शुरूआत हो गई."

वर्ष 1937 में कांग्रेस नेता जवाहर लाल नेहरु ने असम के विकास व समृद्धि के लिए पूर्वी बंगाल से लोगों के आने को सही ठहराया था. लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने यह कहते हुए इस दलील का विरोध किया कि ब्रह्मपुत्र घाटी में बिहार के हिंदुओं को बसाना मैमन सिंह के मुस्लिमों को बसाने से बेहतर है. उसके दशकों बाद बांग्लादेश से आने वालों के लिए कट ऑफ की तारीख 24 मार्च, 1971 तय की गई. उसके कुछ दिनों पहले ही वहां मुक्ति युद्ध शुरू हुआ था. आजादी के बाद कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर घुसपैठियों को खदेड़ा था. बाद में गोपीनाथ बोरदोलोई सरकार ने इस नीति पर धीरे चलने का फैसला किया.

संशय में मुस्लिम आबादी

अब बीते साल बीजेपी के राज्य की सत्ता में आने के बाद यह प्रक्रिया तेज हुई है. इससे राज्य की मुस्लिम आबादी संशय में है. वर्ष 1971 से पहले राज्य में पहुंचे हजारों मुस्लिम परिवारों के पास अपनी पहचान के कोई कागजात नहीं है. ऐसे में उनके सिर पर बांग्लादेश भेजे जाने की तलवार लटक रही है.

सबसे ज्यादा समस्या वर्ष 1951 के बाद सीमापार से यहां आने वालों को है. इसकी वजह यह है कि सरकार ने वर्ष 1951 की जनगणना में शामिल तमाम लोगों और उनके वंशजों को एनआरसी में शामिल करने का फैसला किया है. लेकिन 1951 से 1971 के बीच आए लोगों के पास अगर कोई कागजात नहीं हैं तो उनको मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.

राज्य की मतदाता सूची में ऐसे हजारों लोगों का नाम संदिग्ध नागरिकों की सूची में रखा गया है. बीते साल चुनावों में बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद ऐसे तमाम लोगों को खदेड़ने और बांग्लादेश के साथ लगी सीमा सील करने का वादा किया था. कई अल्पसंख्यक संगठनों ने सरकार के फैसले के खिलाफ आंदोलन भी शुरू किया है. लेकिन एनआरसी को अपडेट करने की समय सीमा नजदीक आने के साथ ही उनके सिर पर मंडराता खतरा लगातार गंभीर होता जा रहा है.

बीजेपी सरकार ने जहां बांग्लादेश और अफगानिस्तान समेत कई अन्य देशों से आने वाले हिंदुओं को असम में शरण और नागरिकता देने की बात कही है, वहीं कई संगठन इसका विरोध कर रहे हैं. एक सामाजिक कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वकील उपमन्यु हजारिका कहते हैं, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में आप्रवासियों को जगह नहीं देने का वादा किया था. अब उनको अपने वादे पर अमल करना चाहिए." वह कहते हैं कि मुस्लिम के साथ राज्य में हिंदू घुसपैठियों को भी शरण नहीं देनी चाहिए. इससे सामाजिक खाई बढ़ेगी. लेकिन असम में बीजेपी महासचिव विजय कुमार गुप्ता कहते हैं, "बांग्लादेश जैसे दूसरे देशों से आने वाले हिंदू हमारे नागरिक हैं. लेकिन बांग्लादेशी मुस्लिम विदेशी हैं." वह कहते हैं कि असम समझौते के तहत वर्ष 1971 की कट ऑफ तारीख का सम्मान किया जाना चाहिए.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि एनआरसी अपडेट होने के बाद भी विवाद थमने के आसार कम ही हैं. वैध दस्तावेजों की गैरमौजूदगी में यह साबित करना बेहद मुश्किल है कि कौन वर्ष 1971 से पहले असम में आया था और कौन उसके बाद.