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आखिर ये जासूसी क्यों

२६ अक्टूबर २०१३

एनएसए ने कई शीर्ष नेताओं की जासूसी कर राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है. जासूसी भी ऐसे नेताओं भी हुई जो अमेरिका के पक्के दोस्त हैं. आखिर अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने ऐसा क्यों किया, क्या अमेरिका असुरक्षित महसूस करने लगा है?

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तस्वीर: Reuters

1945 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद अमेरिका ने जापान और पश्चिमी जर्मनी को एक सशक्त देश के रूप में खड़ा करने में काफी मदद की. वॉशिंगटन ने लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों की वकालत करते हुए इन देशों को फिर से मुख्य धारा में शामिल किया. अमेरिका ने फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों को जर्मनी के साथ ऐतिहासिक शत्रुता भूलकर दोस्ती की राह पर आगे बढ़ाया. वाशिंगटन ने जैसा चाहा, वैसा ही हुआ.

इस दौरान दुनिया ने सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध भी देखा. उपनिवेशवाद के खत्म होने से कमजोर पड़े यूरोप के कुछ देशों को अमेरिका ने सुरक्षा मुहैया कराई. अपने दोस्तों को सोवियत संघ से बचाने के लिए नाटो जैसी सैन्य संस्था बनाई. संदेश साफ था कि अगर एक पर भी हमला हुआ तो सब देश मिलकर जवाब देंगे. अमेरिका के साथ जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन समेत कई देशों ने आपसी वीजा नियम ढीले कर दिए. कारोबार में एक दूसरे को तरजीह दी गई. ऐसा लगने लगा जैसे अटलांटिक के आर पार जैसे सिर्फ भाषा और एक दुक्का मामूली बातों का ही अंतर हो.

लेकिन दोस्ती की शानदार प्रस्तावना से शुरू हुआ ये निबंध अब विषय विस्तार में है. हालात बदल चुके हैं. आज अमेरिका पर अपने ही दोस्तों की जासूसी के आरोप लग रहे हैं. ब्राजील, मेक्सिको और भारत जैसे देशों की तो बात दूर अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) ने अपने लंगोटिया यार कहे जाने वाले जर्मनी और फ्रांस तक को नहीं छोड़ा, उनकी भी जासूसी कर डाली. लिहाजा ये सवाल उठाना लाजिमी है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने ऐसा क्यों किया? फ्रांस और जर्मनी से उन्हें किस बात की घबराहट है.

सहयोग से शक तक

ये बात सच है कि 11 सितंबर 2001 के हमलों के बाद अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ खड़ा हुआ. अमेरिका पर हुए उस सबसे बड़े आतंकवादी हमले के तार यूरोप से भी जुड़े, भविष्य में ऐसे हमलों को रोकने का हवाला देकर अमेरिका ने बैंक लेन देन का ब्योरा और इंटरनेट संवाद जैसी सूचनाओं पर अपना अधिकार जताया. संवेदनशीलता ऐसी थी कि यूरोप भी मान गया. अटलांटिक के आर पार की खुफिया एजेंसियों के बीच संबंध और गहरे हो गए. कई कुख्यात संदिग्ध पकड़े गए. अमेरिका ने ही 2008 के मुंबई हमलों के दौरान हमलावरों की बातचीत का ब्योरा देकर भारत की भी बड़ी मदद की. उन्हीं सबूतों के आधार पर ये साफ हुआ कि आतंकवादी लगातार पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं के संपर्क में थे. इस दौरान लगा कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियां बढ़िया काम करती हैं.

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ब्राजीलियाई राष्ट्रपति डिल्मा रुसेफ नाराजतस्वीर: Spencer Platt/Getty Images

लेकिन बीते तीन साल में जो बातें सामने आईं हैं उनसे पता चलता है कि एनएसए ने सिर्फ आतंकवाद पर ही नजर नहीं रखी, बल्कि उसके जासूस अमेरिकी हितों को साधने के लिए दूसरे देशों की रोजमर्रा की गतिविधियों की भी कार्बन कॉपी तैयार कर रहे. विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज और एनएसए के लिए काम करने वाले एडवर्ड स्नोडन जैसे व्हिस्ल ब्लोअरों ने इन गतिविधियों की पोल खोल दी. पहले इराक, अफगानिस्तान से जुड़ी खुफिया रिपोर्टें सामने आईं, फिर कूटनीतिक चैनलों की जासूसी की बात निकल आई और अब तो शीर्ष नेताओं की जासूसी के मामलों ने हड़कंप मचा रखा है.

बहुत से लोगों को कहना है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी अपने ही राष्ट्रपति बराक ओबामा को अंधेरे में रख रही है. ये बात सब जानते हैं कि अमेरिकी सिस्टम में कई धड़े बेहद रुढ़िवादी और राष्ट्रवादी हैं. उनके लिए नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और अपने ही अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा को पचा पाना मुश्किल होता रहा है. यह भी एक वजह है कि ऐसे धड़े अपने मन से कुछ न कुछ करते जा रहे हैं. ओबामा को तो इसकी भनक भी नहीं लग पा रही. लेकिन राष्ट्रपति होने के नाते उनके सिर ठीकरा फूटना स्वाभाविक है. ब्राजील से लेकर फ्रांस और जर्मनी तक के नेताओं की आलोचना ओबामा को ही झेलनी पड़ रही है.

कमजोर होता अमेरिका

लेकिन इस बीच इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया में अब अमेरिका ही अकेली शक्ति नहीं रह गया है, अब वो जमाना गुजर चुका है जब अमेरिका जो चाहता था वो हो जाता था. कारोबार के इस दौर में सूचना का मतलब शक्ति है जिसका फायदा अर्थव्यवस्था को होता है. पिछले सालों में चीन, ब्राजील, भारत और यूरोपीय संघ बेहद मजबूत हुए हैं. चीन, ब्राजील और भारत के कारोबार करने का तरीका अलग है, फिलहाल ये देश ग्राहक, प्रशिक्षु, सेवाकर्मी और विक्रेता की भूमिकाओं में हैं. जबकि यूरोप और अमेरिका मुख्य रूप से विक्रेता की भूमिका में हैं. बीते 60 सालों में खासकर जर्मनी ने तकनीक और गुणवत्ता के लिहाज से अपनी गुम हुई पहचान वापस पाई है.

भारत में एक कहावत आम है कि दुकानदारी में यारी नहीं चलती है. यही हाल अर्थव्यवस्था के कंधों पर सवार अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी हो चुका है. बीते 20 सालों को देखें तो पता चलता है कि शीर्ष नेता दूसरे देश के दौरे पर बड़े कारोबारियों के बड़े समूह को साथ ले जाते हैं. बातचीत का मुख्य मुद्दा बाजार खोलना और निवेश ही रहता है. बीते एक दशक में जर्मनी, फ्रांस और यूरोपीय संघ सीधे तौर पर एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे बाजारों में अमेरिका के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. चीन का मामला थोड़ा अलग है वो इन देशों में सस्ते सामान और संसाधनों के लिए बाजार खोज रहा है. ऐसे में महंगी तकनीक और उन्नत मशीनें बेचने के लिए अमेरिका और यूरोपीय देश आमने सामने हैं. बोइंग और एयर बस का उदाहरण साफ है, अमेरिकी प्रशासन दूसरे देशों में जाकर बोइंग खरीदने के लिए माहौल बनाता है, जबकि यूरोपीय नेता एयरबस की वकालत करते हैं. हथियार हों, लड़ाकू विमान हों, बीज हों, खेती की तकनीक हो या फिर नई से नई तकनीक, दुनिया में अब पहले से कहीं ज्यादा विक्रेता हैं, लिहाजा ग्राहक के सामने विकल्प बढ़ गए हैं और विक्रेताओं में गलाकाट होड़ छिड़ गई है.

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जासूसी अस्वीकार्य: जर्मन चासंलरतस्वीर: picture-alliance/dpa

यहां अमेरिका कमजोर पड़ा है. भविष्य की कल्पना इस भय को और बड़ा कर देती है. ऐसे में कहीं न कहीं अमेरिकी खुफिया एजेंसियां वो काम कर रही हैं जो उनके दायरे में नहीं आता. वो दूसरे देशों के नेताओं और कारोबारियों की जासूसी कर रही हैं, ताकि वो गुप्त ढंग से अमेरिका के हितों को साध सके. लेकिन इस बार खेल पलट गया, जासूस खुद जासूसी का शिकार हो गए. अमेरिका के साथ अब बाकी दुनिया के संबंधों में ये मामला अब हमेशा शक और सावधानी की लकीर खींचेगा.

ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी

संपादन: महेश झा

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