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समाज

आज अपनी पीठ थपथपाने का दिन है

ईशा भाटिया सानन
८ मार्च २०१८

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं की दुर्दशा की ओर ध्यान खींचने वाले कई संदेश आ रहे हैं. जो हासिल नहीं हुआ है, उस पर चर्चा की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन जो सब हो चुका है, आज के दिन उसे सराहना भी जरूरी है.

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USA New York City back view of two young women in Manhattan having fun model released Symbolfoto
तस्वीर: Imago/Westend61

एक जमाना था जब दबी हुई सी आवाज में रेणुका शहाणे टीवी की स्क्रीन पर आती थीं और कहती थीं, "मुझे आपसे कुछ कहना है, कैसे कहूं?" महिलाओं के "उन दिनों" के बारे में वे इतना संभल कर बात करती थीं कि जिनके लिए विज्ञापन बना था, उनके अलावा और किसी को समझ ना आए कि बात आखिर हो क्या रही है.

आज वही रेणुका शहाणे अपने बेटों के साथ वीडियो बना कर फेसबुक पर पोस्ट करती हैं और लोगों से गुजारिश करती हैं कि परिवार में "पीरियड्स" के बारे में बात करें. पीरियड - वीडियो के अंत में वह इस शब्द का बखूबी इस्तेमाल भी करती हैं, जबकि लगभग तीन दशक पहले के उस विज्ञापन में इस शब्द के इस्तेमाल के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था.

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ईशा भाटिया

आज अक्षय कुमार पीरियड्स की समस्याओं पर फिल्म बनाते हैं और पब्लिसिटी कैम्पेन में हर किसी के हाथ में सैनिटरी पैड देखने को मिलते हैं. तीन दशक में इतनी तरक्की तो कर ली है हमने. भले ही आज भी सैनिटरी पैड दुकान से काली पन्नी में लपेट कर ही मिलता है और घर में भी लड़कियां उन्हें अपने पिता और भाई से ऐसे छिपा कर रखती हैं, मानो पैड ना हुआ, बॉयफ्रेंड का खून से लिखा लव लेटर है. लेकिन कम से कम से सोशल मीडिया पर बात होती है.

लड़कियां जानती हैं कि यहां उनकी मां "बदतमीज, जाओ अपने कमरे में" कह कर उन्हें चुप नहीं करा सकती. और सिर्फ पीरियड्स ही नहीं, अब उन्हें किसी भी मुद्दे पर चुप नहीं कराया जा सकता. बॉस के दफ्तर में फ्लर्ट करने से ले कर कम सैलेरी तक, मोहल्ले में सीटी बजा कर छेड़ने वाले से ले कर बस में छाती पर हाथ मारने वाले तक, प्रेग्नेंसी की मुश्किलों से ले कर डिलीवरी के दर्द तक, अब ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर लड़कियां खुल कर बात नहीं कर रही. और यह भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है.

पिछले सौ साल के इतिहास को देखेंगे, तो हर दशक में महिलाओं के किसी ना किसी संघर्ष के बारे में पता चलेगा. पश्चिमी देशों में आज महिलाओं के पास जो अधिकार हैं, वे हमेशा नहीं थे. कभी उन्हें वोट देने के हक के लिए लड़ना पड़ा, तो कभी घर से निकल कर बाहर काम करने के लिए. दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका 1788 से ले कर आज तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं चुन पाया है. यूरोप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले जर्मनी में आज भी महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 21 फीसदी कम वेतन मिलता है.

यानि महिलाओं को ले कर असमानता सब जगह है. लेकिन सबसे जरूरी है कि इन पर बात हो रही है. और सिर्फ सोशल मीडिया पर ही नहीं, क्लासरूम में, मोहल्लों में, दफ्तरों में, हर जगह लड़कियां और महिलाएं बदलाव के लिए तैयार नजर आ रही हैं. सालों से अपने साथ हो रहे शोषण को बर्दाश्त कर रही हॉलीवुड की अभिनेत्रियां बिना किसी डर के लोगों के सामने अपनी कहानियां रख देती हैं. कहीं घर वाले कॉलेज भेजना ही बंद ना कर दें, यह सोच कर छेड़छाड़ पर चुप्पी साधने वाली लड़कियां आज बिना किसी हिचकिचाहट के छेड़छाड़ करने वालों के वीडियो बना रही हैं और दुनिया के सामने ऐसे लोगों को जलील कर रही हैं.

कुल मिला कर हर स्तर पर बदलाव आ रहा है. महिला दिवस पर इसी बदलाव को सराहने की जरूरत है. हम अब तक जो हासिल नहीं कर पाए हैं, उसकी आलोचना तो होती ही रहेगी और होना जरूरी भी है. लेकिन जो हासिल कर लिया है, आज उसके लिए अपनी पीठ थपथपाने का दिन है. मंजिल अभी भी बहुत दूर है लेकिन जो रास्ता ढूंढ लिया है, वहां एक पल के लिए रुक कर खुद को बधाई दें. महिलाओं के लिए भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है, बस यूं ही संघर्ष करते रहने की जरूरत है.