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आज डर सिर्फ आईएस का नहीं

शिवप्रसाद जोशी१७ अगस्त २०१५

दुर्दांत आतंकी गुट आईएस अपना नेटवर्क भारतीय उपमहाद्वीप में भी फैला रहा है. भारत सरकार चिंतित है. उसे बेशक सजगता बरतनी होगी लेकिन इस सजगता के भी कई आयाम हैं. राजनैतिक भी, सामरिक भी और सामाजिक भी.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

सजगता और सतर्कता अनिवार्य है लेकिन लगता है कि एक अंदेशे ने इस देश को निरंतर विजिलेंस के मोड में डाल दिया है. संदेह और अविश्वास का माहौल घना होता जा रहा है. आईएस जिस रणनीति पर काम कर रहा है, जिस तेजी और जिस बर्बर इत्मीनान के साथ अपनी ताकत, संसाधन और खौफ फैला रहा है, उसमें भारत जैसे देश भी चपेट में हैं. अमेरिका द्वारा घोषित आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत अहम पार्टनर रहा है और इस लड़ाई के पहले निशाने इराक और अफगानिस्तान रहे हैं जहां अब बरबादी का मंजर बिखरा हुआ है. आईएस ने दुनिया के कुछ मुस्लिम इलाकों में अपने लिए पहली जमीन इसी युद्ध की कमजोरियों और सामरिक गल्तियों को भुनाते हुए जुटाई. फिर उसने कट्टर संगठनों और कबीलाई लड़ाइयों का फायदा उठाकर उनकी ताकत को छिन्नभिन्न किया और बेतहाशा कत्लेआम से इराक और सीरिया में घुसपैठ की.

उसने जिस तरह से अपना प्रचार किया और मनोवैज्ञानिक ढंग से धार्मिक उभारों, धार्मिक दबावों और धार्मिक लड़ाइयों के बरक्स आजाद होने और अपनी धार्मिक मिल्कीयत का जो सपना दिखाना शुरू किया उससे जाहिर है दुनिया में कई जगह युवा उसकी ओर खिंचे. ब्रिटेन जैसे देशों से युवा आईएस में शामिल होने निकले. भारत जैसे देशों में खतरा यही है कि आईएस भले ही यहां अपनी जमीन न बनाए लेकिन यहां से युवाओं को भ्रमित कर उड़ा न ले जाए. खुफिया इनपुट इस बारे में आगाह करते रहे हैं. और दावा तो किया जाता है कि नजर भी रखी जा रही है. इस लिहाज से सुरक्षा एजेंसियों का काम तो चौकन्ना नजर आता है लेकिन इस वास्तविकता का एक अलग पहलू भी है कि ये मुस्तैदी अधूरी है और इसमें आएगा तो देखेंगे वाली भावना तो निहित है लेकिन उस समस्या को पनपने ही न देने की प्रोएक्टिव रणनीति नहीं नजर आती है.

सुरक्षा कार्रवाइयों में इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि किसी अति उत्साही और आधे अधूरे एक्शन से समाज में माहौल न बिगड़े और नागरिकों में दहशत न फैले. सामाजिक स्तर पर हमें बलात्कारियों और हिंसा और उत्पाद फैलाने वालों के आतंक को भी समझना होगा. अभी पिछले दिनों मेरठ की एक घटना के हवाले से ही देखें कि क्या हम समाज में फैले उन स्त्री विरोधी अत्याचारियों को सिर्फ शोहदे या मनचले कहकर छोड़ दें. क्या वे हमारे समाज में आतंक नहीं फैला रहे हैं. देश की अखंडता पर हमला और हमारे समाज, परिवार, घर, बच्चों, स्त्रियों और गरीबों पर हमला भी तो आंतक ही कहलाएगा या कुछ और.

दूसरी बात भरोसे में लेने की और आईएस जैसे गुटों से होशियार रहने की कवायदें व्यापक स्तर पर बाकायदा मुहिम की तरह चलाई जानी चाहिए. इस काम में सरकार, पुलिस, प्रशासन के अलावा एनजीओ, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और धार्मिक संगठनों को भी आगे आना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वो सभी दबाव समूहों को साथ में ले. एक जागरूकता अभियान भी चाहिए. विश्वास की बहाली का, गरीबों की स्थितियों में बदलाव का अभियान भी चाहिए. होना तो ये चाहिए था कि आजादी के 68 साल बाद आज हम एक बंटा हुआ और सांप्रदायिक समाज न देख रहे होते. देर नहीं हुई है. हम इस देश की धर्मनिरपेक्ष विरासत को बचाए रख सकते हैं और उन ताकतों से इसे महफूज भी रख सकते हैं जो हमारी कमियों को अपना हथियार बनाकर हमारे समाज को निगलने आ रही हैं या यहीं फैली हुई हैं.

लेकिन देखने में आता है कि ऐसे मामलों में सब लोग अलग थलग ही रहते हैं, सुरक्षा बलों का कोई तालमेल और समन्वय समाज के अन्य प्रभावशाली तबकों या संगठनों से नहीं बन पाता है. अगर सरकारें और राजनैतिक दल चाहें तो इसमें किसी “लाभ” की अवसरवादिता को छोड़, वास्तविक जवाबदेही और अपने नागरिकों के प्रति वास्तविक संवेदनशीलता के साथ काम कर सकती हैं. भारतीय समाज में आज जो डर, वैमनस्य और संदेह का माहौल बना है, उसकी वजहों में सामाजिक जवाबदेही की किल्लत भी है. आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई एक वास्तविक अभियान होगी. उसे अतिनाटकीय राष्ट्रीय गौरव, कृत्रिम महिमामंडन, या बहुसंख्यकवाद की हुंकार मत बनाइये. आज कहते हैं आईएस है, मत भूलिए कि कल कोई और होगा. आम नागरिक कहां जाएंगे. हमारी और आपकी तकलीफ को कौन सुनेगा.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी