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आडवाणी की चेतावनी महत्वपूर्ण

१८ जून २०१५

प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने 25 जून, 1975 की रात में देश में आंतरिक इमरजेंसी लगाकर संविधान को निलंबित कर दिया था और आडवाणी समेत अनेक चोटी के नेताओं ने जेलों में 19 माह गुजारे थे.

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इमरजेंसी पर आडवाणी के विचारों का महत्व स्पष्ट है, विशेषकर इसलिए क्योंकि इस समय केंद्र में उनकी अपनी पार्टी की सरकार सत्ता में है. पहली बार भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है और वह सरकार की स्थिरता के लिए किसी अन्य पार्टी पर निर्भर नहीं है. इसके साथ ही यह भी सही है कि इस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता का जितना केन्द्रीकरण हुआ है और जिस तरह से सभी मंत्रालयों के अधिकारों में कटौती करके उनके कामों को प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपा जा रहा है, वह अभूतपूर्व है. इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस मार्कण्डेय काटजू का वह ब्लॉग प्रासंगिक हो उठता है जिसमें कुछ माह पहले उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि देश इमरजेंसी की ओर बढ़ रहा है.

आडवाणी का कहना है कि जिन संस्थाओं पर लोकतंत्र को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी है, उनमें से केवल न्यायपालिका औरों से अधिक जिम्मेदारी कर परिचय दे रही है. सवाल यह है कि जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में 1998 से लेकर 2004 तक छह साल केंद्र में सरकार थी जिसमें आडवाणी खुद दूसरे नंबर पर थे, तब नागरिक समाज और नागरिक स्वतंत्रताओं को मजबूत बनाने के लिए कुछ क्यों नहीं किया गया. इमरजेंसी के दौरान अपने कारनामों के लिए कुख्याति अर्जित करने वाले अनेक लोगों को भाजपा में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया. अभिव्यक्ति की आजादी पर हिन्दुत्व शिविर की ओर से लगातार हमले हुए और आज भी हो रहे हैं. वीआईपी संस्कृति को बढ़ावा देने में भाजपा भी किसी से पीछे नहीं रही है. राजनीतिक नेतृत्व विवादास्पद फैसले लेने से बचता रहा है जिसके कारण न्यायपालिका को जरूरत से अधिक सक्रियता दिखानी पड़ी है और आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि आम आदमी को सिर्फ अदालतों पर ही भरोसा रह गया है.

राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के फलने-फूलने के कारण लोकतंत्र की जड़ें लगातार कमजोर हुई हैं. जब संसद और विधानमंडलों में हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों के आरोपी चुन कर आएंगे, तो लोकतंत्र कैसे मजबूत हो सकता है? भाजपा ने सार्वजनिक जीवन में शुचिता का नारा दिया था, लेकिन दूसरे दलों की तरह ही वह उस पर अमल करने में असफल रही. इन दिनों भी उसके सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे जैसे बड़े नेता अपने विवादास्पद आचरण के कारण अखबारों की सुर्खियों में है. कार्यपालिका यानि सरकार का कामकाज संदेह के घेरे में रहता है और विधायिका यानि संसद और विधानसभाएं बेमतलब के हंगामे और शोरशराबे में अपना समय नष्ट करती हैं. जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता इतनी घट गई है कि जब तक वह अदालत की निगरानी में न हो, तब तक किसी को उसके नतीजों पर यकीन ही नहीं होता. सुप्रीम कोर्ट स्वयं सीबीआई को ‘पिंजड़े में कैद तोता' बता चुका है. चुने हुए जनप्रतिनिधियों में लोकतांत्रिक चेतना का अभाव हैं. लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने के बजाय लगातार कमजोर किया गया है. ऐसे में यदि कोई चुना हुआ प्रधानमंत्री एकाधिकारवादी यानी तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाने लगे तो उसका विरोध करना बेहद मुश्किल होगा.

गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी सम्पूर्ण सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित करने के लिए जाने जाते थे. अब प्रधानमंत्री के रूप में भी उनकी यही छवि बन रही है. भारत जैसे विशाल देश को एक सत्ताकेन्द्र के सहारे चलाना लोकतांत्रिक ढंग से तो संभव नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में विभिन्न संस्थाएं विभिन्न भूमिकाएं निभाती हैं और उनके पास अपने-अपने अधिकार होते हैं. लोकतंत्र की सफलता और स्थायित्व इन संस्थाओं के सुचारु ढंग से काम करने पर निर्भर करता है. इसलिए आडवाणी की चेतावनी का महत्व स्पष्ट है क्योंकि इन्हें मजबूत करने के लिए प्रयास नहीं किए जा रहे.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार