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आप है कि मानती नहीं

५ मार्च २०१५

कापसहेड़ा में हुए आप के मंथन से एक बात तो साफ तौर पर सामने आ गई कि औरों से अलग दिखने का दावा करने वाली पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं है. उभर कर सामने आया रोग अपने वजूद को तो साबित कर ही गया साथ ही रोग का स्थायी इलाज भी नहीं.

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Indien Wahlen im Bundesstaat Neu Delhi
तस्वीर: Reuters/A. Mukherjee

कुल मिलाकर वैकल्पिक राजनीति के मूलमंत्र से उपजी आप अपने ही बुने तानेबाने में उलझती नजर आ रही है. विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी के शीर्ष नेताओं में उभरे मतभेद से इतना तो तय हो गया कि अंदरखाने जो खिचड़ी पक रही है वह सबके लिए स्वादिष्ट होगी, यह जरुरी नहीं है.

महज एक पखवाड़े पहले देश दुनिया को चौंकाने वाले चुनाव परिणाम आने तक आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल, सबके चहेते थे. मगर इतनी जल्दी ऐसा क्या हुआ कि सबकी आंखों का तारा अब अपनों की ही आंख की किरकिरी बन गया. यह एकमात्र सवाल नहीं है बल्कि इसकी कोख से उपजे तमाम सवाल हैं, जो राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद भी अनुत्तरित है. बैठक में जिस हाई प्रोफाइल प्रपंच की उम्मीद थी वही हुआ. अरविन्द केजरीवाल पार्टी संयोजक पद से इस्तीफा देने पर अडिग रहे. साथ ही वह खुद बैठक में जाने के बजाए अपने मुख्यमंत्री कार्यालय में ही बैठे रहे. दूसरी तरफ विरोध का मोर्चा संभाले योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण भी केजरीवाल का इस्तीफा वापस लेने पर अड़े रहे. सवाल यह है कि अंत में इस मंथन से निकल कर क्या आया. दुनिया ने इस जद्दोजेहद को देखा कि मंथन से निकला विष किस कंठ के नीचे उतरे.

इस सवाल के जवाब में अतीत को खंगालना मुनासिब है. याद कीजिये आम आदमी पार्टी का अभ्युदय - जब आंदोलन और सियासत के मुद्दे पर अरविंद और अन्ना की राहें जुदा हुई थीं. अगस्त 2012 में जंतर मंतर से कॉन्स्टीट्यूशन क्लब तक चले उस मंथन के बाद अन्ना नीलकंठ बने थे. हालात की बानगी देखिए कि एक बार फिर इतिहास स्वयं को दोहराने जा रहा है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार विषवमन कुछ ज्यादा होने के कारण केजरीवाल के सिपहसालारों को दो कंठ की दरकार है. हालांकि तब और अब में एक फर्क यह भी है कि उस समय अन्ना को नीलकंठ होने से बचाने के लिए कोई सेतु की भूमिका में नहीं था लेकिन इस बार प्रो. आनंद कुमार यह भूमिका तत्परता से निभा रहे हैं. प्रो. कुमार योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के गले नीले होने से बचाने में काफी हद तक कामयाब भी रहे.

Indien Wahlen Arvind Kejriwal AAP
इतनी जल्दी ऐसा क्या हुआ कि सबकी आंखों का तारा अब अपनों की ही आंख की किरकिरी बन गया.तस्वीर: Reuetres/A. Mukherjee

तकनीकी पहलु यह है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 21 सदस्यों में से 9 सदस्यों को मिलाकर बनने वाली राजनीतिक मामलों की समिति को भंग करना ही था और ऐसा होने पर योगेन्द्र यादव को भी हटना ही था. खबरिया चैनल फिर इस तकनीकी पहलु के फेर में गच्चा खा गए. और आखिर में राष्ट्रीय कार्यकारिणी के मंथन से निकला जहर मीडिया की अल्पज्ञता के नाम पर खबरनबीसों के सिर उड़ेल दिया गया.

आंदोलन से लेकर सियासत तक का टीम केजरीवाल का सफरनामा बताता है कि आज जो कुछ फलक पर दिख रहा है वह पूरी तरह से हकीकत नहीं है. केजरीवाल की शुरूआती चुप्पी से साफ हो गया कि मीडिया में जो कुछ भी नुमांया हो रहा है वह सच से काफी दूर है. दरअसल आप इस समय वैचारिक संक्रमणकाल के नैसर्गिक दौर से गुजर रही है. ऐसे में विचारों का अंतर्द्वंद्व सतह पर आना लाजमी है. यह द्वंद्व मल्लयुद्ध न बने, इस कला में पारंगत होने के लिए हर व्यक्तिसमूह को अनुभव की दरकार है. राजनीति की रपटीली राहों पर सधे कदमों से चलने के लिए बेशक आप को यह कला सीखनी पड़ेगी. आप के नेताओं को योगेन्द्र यादव की संतुलित राजनीतिक समझ का लाभ उठाकर यह समझना होगा कि सियासत काजल की वह कोठरी है जिससे आज तक कोई बेदाग नहीं निकला है.

आप के खेमे में यह सब होना अलौकिक बात नहीं है. पड़ोस के कांग्रेसी खेमे में भी मां-बेटे के नाम पर चल रही गुटबाजी के चर्चे हर जुबान पर हैं. लेकिन घर की बात बाहर आने से बचाने की कांग्रेस की महारथ का सच आप को स्वीकारना होगा. व्यवहारिकता का तकाजा है कि आप को सहजता से सीखी जा सकने वाली बातें कम से कम अपने विरोधियों से भी सीखने में गुरेज नहीं होना चाहिए.

अब बात जमीनी हकीकत की. आप में चल रहे घमासान का हश्र जो भी हो, मगर बड़ा सवाल यह है कि इससे हासिल क्या होगा. इसका जवाब काफी हद तक मंगलवार को केजरीवाल के एक ट्वीट ने दे दिया. तीन दिन से चुप्पी साधे केजरीवाल ने ट्विटर के मार्फत अपनी पीड़ा को उजागर कर यह तो साफ कर दिया कि वह पार्टी के विस्तार को दिल्ली से बाहर नहीं ले जाने के अपने मत पर कायम हैं. ऐसे में पार्टी के विस्तार और दिल्ली में सरकार के संचालन की समानांतर प्रक्रिया के हिमायती योगेन्द्र यादव के पास अपने मत से पीछे हटने या बाहर का रास्ता चुनने का ही विकल्प बचता था. मौजूदा हालात में यादव और भूषण की आप के लिए अपरिहार्य जरुरत को देखते हुए विस्तारवादी सोच ठंडे बस्ते में जाती दिख रही है.

आखिर में एक बात और, पार्टी के मंथन ने यह भी साबित कर दिया कि आप का जो तानाबाना है वह फिलहाल आधी हकीकत और आधा फसाना है. क्योंकि यह समय की नियत गति से ही कुछ सीखने वालों का कुनबा है.

ब्लॉग: निर्मल यादव