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आर्थिक विकास के लिए भारत पाक शांति जरूरी

श्रीनिवास मजुमदारु
१५ अगस्त २०१७

जब भारत और पाकिस्तान को 70 साल पहले अंग्रेजों से आजादी मिली तो दोनों देश विकास के समान स्तर पर थे. दोनों गरीब और बदहाल थे. 70 साल बाद दोनों के बीच आर्थिक खाई लगातार बढ़ती जा रही है.

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Abwracken von Schiffen in Geddani Pakistan
तस्वीर: Roberto Schmidt/AFP/GettyImages

सात दशक पहले अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ी से आजाद होने के बाद से भारतीय उपमहाद्वीप सत्ता पिछड़पन का शिकार रहा है. पूर्वोत्तर और दक्षिण पूर्व एशिया के मुकाबले दक्षिण एशिया की विकास दर बहुत कम रही है. इलाके के आजादी उसके धार्मिक आधार पर बंटवारे के साथ जुड़ी रही है, जिसका नतीजा हिंदू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान के रूप में सामने आया. 1947 में आजादी के समय दोनों देश सामाजिक आर्थिक विकास के समान स्तर पर थे. वहां गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण का शिकार करोड़ों लोग रहते थे.

भारत ने अपनी आजाद यात्रा ब्रिटिश शासकों द्वारा बनायी गयी सार्वजनिक संस्थाओं की विरासत के साथ शुरू की. उसके पास शहरी आबादी, उद्योग और परिवहन ढांचे का बड़ा हिस्सा भी था. दूसरी ओर पाकिस्तान कृषि क्षेत्र में बेहतर था, देश के हिस्से में पंजाब का बड़ा सिंचित इलाका आया. दोनों देशों ने तेज आर्थिक विकास के सपने देखे, इस उम्मीद के साथ कि उससे लाखों गरीब लोगों की जिंदगी सुधरेगी.

एक जैसी राहें

1950 और 60 के दशक में दोनों देशों की आर्थिक नीतियों में बहुत समानता थी, सोवियत संघ से प्रेरित और पूंजीवाद से सशंकित होकर दोनों देशों ने नियोजित सरकारी अर्थव्यवस्था की राह चुनी. फोकस आयात का विकल्प खोजना और आत्मनिर्भरता पर था. बेशक नतीजा संरक्षणवाद और सरकार के हस्तक्षेप के रूप में सामने आया जिससे विकास की गति रुकी और गरीबी कायम रही.

असमानता उस जमाने में भी समस्या थी और आज भी है. 1970 के दशक में दोनों ही देशों में समृद्धि का बंटवारा बहस के केंद्र में था. भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तो पाकिस्तान में प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने रोटी, कपड़ा और मकान का नारा दिया. इंदिरा गांधी का अतिवादी रवैया उद्योगों, बैंकों, कोयला और इस्पात कंपनियों के राष्ट्रीयकरण में दिखा तो पाकिस्तान में भुट्टो भी सरकारी नियंत्रण के पक्षधर थे. उन्होंने भी वित्तीय संस्थानों का राष्ट्रीयकरण किया.

दोनों ही देशों में राष्ट्रीयकरण का मकसद असमानता को कम करना और आर्थिक खुशहाली में लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाना था. लेकिन इन नीतियों ने विकास दर को धीमा कर दिया, विदेशी निवेश को भागने पर मजबूर कर दिया और उद्यमिता को हतोत्साहित किया. कुछ अर्थशास्त्री तो ये भी कहते हैं कि इससे सामाजिक विषमता और बढ़ी. पाकिस्तान के मामले में राजनीतिक और सुरक्षा जोखिम भी बढ़े. जातीय विवादों और धार्मिक पार्टियों के उदय के साथ अफगान युद्ध के साये में चरमपंथी विचारधारायें भी फैलीं.

Pakistan Stromversorgung Karachi
बिजली की कमी विकास में बाधकतस्वीर: Reuters

उदारवादी नीतियां

विकास में बाधा डालने वाली नीतियों की वजह से दोनों ही देशों में अर्थव्यवस्थायें मुश्किल में पड़ गयीं और 1980 के दशक में बजट घाटे और व्यपार संतुलन का गंभीर संकट पैदा हो गया. पाकिस्तान ने 1988 में और भारत ने 1991 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरबाजा खटखटाया. दोनों ही देशों को गंभीर आर्थिक सुधार करने पड़े और अपनी अर्थव्यवस्थाओं को खोलना पड़ा. भारत ने सिर्फ एक बार 1991 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद ली जबकि पाकिस्तान 1988 के बाद से 12 बार मदद मांगी है. ये बात दोनों देशों की अर्थव्यवस्था के विकास की राह में आये बदलाव को दिखाती है.

आर्थिक विश्लेषक राजीव विश्वास कहते हैं, "1990 के बाद से भारत आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की राह पर बढ़ा है जबकि पाकिस्तान राजनीतिक उथल पुथल और आर्थिक संकट का शिकार रहा है." भारत की प्रगति ने अंतरराष्ट्रीय निवेशक समुदाय को आकर्षित किया है और पाकिस्तान के साथ अंतर बढ़ा दिया है. इसके बावजूद इस साल भारत का अनुमानित जीडीपी प्रति व्यक्ति 1930 डॉलर जबकि पाकिस्तान का 1530 डॉलर होने का अनुमान है. ऊर्जा सेक्टर के संकट ने पाकिस्तान की आर्थिक समस्याओं को और बढ़ाया है.

सुधारों की जरूरत

भारत और पाकिस्तान दोनों ही अपनी लालफीताशाही और गैर सरकारी क्षेत्र में निवेश में बाधाओं के लिए बदनाम हैं. कारोबार में आसानी वाले वर्ल्ड बैंक के 2017 के सूचकांक में भारत अभी भी 190 देशों के बीच 130वें स्थान पर है. पाकिस्तान उससे थोड़ा ही पीछे 144वें नंबर पर है. जटिल टैक्स व्यवस्था बदलने की सरकार की पहल के बाद भारत की अर्थव्यवस्था के आने वाले सालों में 7.5 प्रतिशत से बढ़ने की उम्मीद है जबकि पाकिस्तान के लिए 5 प्रतिशत सालाना की वृद्धि दर का अनुमान है. इस्लामाबाद की उम्मीदें अरबों डॉलर की परियोजना चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर सीपीईसी से जुड़ी हैं जिसमें पाकिस्तान में अरबों का चीनी निवेश होगा. विशेषज्ञों के अनुसार यह पहल अगले पांच सालों में आर्थिक विकास को बढ़ा सकती है.

पिछले सात दशकों में पाकिस्तान और भारत के बीच सीमा विवाद और उसकी वजह से पैदा अविश्वास और दुश्मनी आर्थिक क्षेत्र में भी घुस गयी है और अर्थपूर्ण सहयोग में बाधा डाल रही है. दोनों पक्षों के बीच तल्खी और संदेह की वजह से वे अपना भारी वित्तीय संसाधन सुरक्षा और प्रतिरक्षा पर खर्च कर रहे हैं. इसका नतीजा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे इलाकों में संसाधानों का अभाव है. इतना ही नहीं इसने दक्षिण एशिया को आर्थिक समेकन के मामले में पीछे धकेल दिया है. इलाका व्यापारिक बाधायें, खस्ताहाल ट्रांसपोर्ट और नियामक बाधायें झेल रहा है. स्थिति में सुधार के लिए दोनों देशों को शांति का रास्ता अख्तियार करना होगा.