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इंटरनेट से जुड़े, तो ई-लर्निंग से क्यों कटे हैं गांव

अशोक कुमार
२४ जुलाई २०१७

बदलते जमाने के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए कंप्यूटर आधारित शिक्षा यानी ई-लर्निंग की जरूरत हर स्तर पर समझी जा रही है, लेकिन चुनौती है उसे सब छात्रों तक पहुंचाना. जटिल सामाजिक और आर्थिक ताना बाना इस राह में अड़चन बन रहा है.

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Indien Schüler bei einer Prüfung
तस्वीर: Imago/Hindustan Times

स्मार्टफोन के बढ़ते चलन की वजह से गावों और शहरों के बीच डिजिटल खाई कम हुई है. शहर ही नहीं, बल्कि गांवों में भी अब मोबाइल और स्मार्टफोन फोन पहुंच गये और इंटरनेट का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है. इसलिए कंप्यूटर और इंटरनेट से अब गांव देहात के लोग शायद उतने अंजान नहीं है जितने कुछ साल पहले हुआ करते थे.

उल्लास कुमार गूगल जैसी नामी आईटी कंपनी में काम कर चुके हैं और फिलहाल मेघशाला नाम की कंपनी से जुड़े हैं जो कर्नाटक में स्कूलों के लिए डिजिटल पाठ्य सामग्री तैयारी करती है. मेघशाला अभी कर्नाटक के आठ जिलों में 200 स्कूलों के साथ काम कर रही हैं. उल्लास कुमार बताते हैं, "गांवों में भी आज बच्चे फेसबुक और व्हाट्सएप के बारे में बात करते हैं. कर्नाटक के ग्रमीण इलाकों में ज्यादातर अध्यापक व्हाट्सएप पर हैं. बच्चे भी उनसे फेसबुक और गूगल के बारे में बाते करते रहते हैं. इसलिए डिजिटल जागरुकता के लिहाज से वहां भी आजकल अंतर ज्यादा नजर नहीं आ रहा है.”

बाधाएं

बात जब ई-लर्निंग की आती है तो संसाधन और बुनियादी ढांचे की कमी के कारण गांव साफ तौर पर शहरों से पिछड़ते नजर आ रहे हैं. सरकार ने देश के हर हिस्से में ई-लर्निंग को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं तैयार की हैं और काम हो भी रहा है. लेकिन उल्लास कुमार कहते हैं कि बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना इस अंतर को पाटना मुश्किल है.

वह बताते हैं, "सरकारी स्कूलों में बहुत कम काम हो रहा है. सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर लैब तो बना रही है लेकिन कई जगहों पर बिजली ही नहीं आती तो फिर कंप्यूटर कैसे चलेंगे. कंप्यूटर को जैसी सर्विस की जरूरत होती है, वह नहीं हो पाती है. ऐसे में, साल भर के भीतर कंप्यूटर खराब होने लगते हैं.”

बिहार के मुंगेर और जमुई जिले में आई-सक्षम नाम की गैर सरकारी संस्था के साथ काम करने वाले श्रणव झा ई-लर्निंग के लिए सही मॉडल अपनाने पर जोर देते हैं. वह कहते हैं, "25 से 30 हजार का लैपटॉप या कंप्यूटर खरीदना गांव वालों के बस में नहीं होता. लेकिन साढ़े तीन या चार हजार रुपये का टैबलेट वे आसानी से खरीद सकते हैं. 4.4 वर्जन से ऊपर के किसी भी टैबलेट में आप एमएस वर्ड और एमएस एक्सल डाउनलोड कर सकते हैं. साथ ही हमारे लिए टैबलेट मल्टीपल यूज का काम करता है. इससे कॉलिंग भी हो सकती है और कंप्यूटर की तरह उसे इस्तेमाल भी कर सकते हैं.”

फैलता उद्योग

इसीलिए वह उत्तर प्रदेश में सरकार की तरफ छात्रों को लैपटॉप देने की योजना पर सवाल उठाते हैं. राष्ट्रीय डिजिटल सारक्षरता मिशन के सिलसिले में वह सही मॉडल का सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं, "हर घर से एक बच्चे को डिजिटल साक्षर बनाने का लक्ष्य तय किया गया था. लेकिन उन्होंने जो मॉडल अपनाया वह सही नहीं है. उन्होंने कहा था कि नेट कैफे होंगे जहां पर 10 -12 कंप्यूटर लगे होंगे. वहां इंटनेट होगा और लोगों को वहां आकर ट्रेनिंग लेनी होगी. लेकिन ग्रामीण इलाकों में नेट कैफे हैं ही नहीं. जो नेट कैफे हैं वो ब्लॉक या डिस्ट्रिक्ट मुख्यालय में हैं. हम डिजिटल लिटरेसी की तरफ जाने की सोच तो रहे हैं लेकिन जो मॉडल अख्तियार कर रहे हैं, वे महंगे हैं. तो हमें सस्ते मॉडल्स के बारे में सोचना होगा जिन्हें गांव देहात में लागू किया जा सके.”

Indien Schüler
तस्वीर: picture-alliance/dpa

ई-लर्निंग को बढ़ावा देना सरकार की प्राथमकिताओं में शामिल है. कई बड़ी कंपनियां इस क्षेत्र में आगे आ रही हैं और कक्षाओं को डिजिटल सामग्री से लैस किया रहा हैं. स्किल डेवेलपमेंट मंत्रालय ने इस दिशा में बहुत ऊंचे लक्ष्य तय किये हैं और उन्हें हासिल करने के लिए कई सारी प्राइवेट कंपनियों के साथ मिल कर काम हो रहा है.

एक अनुमान के मुताबिक भारत में ई-लर्निंग तीन अरब डॉलर के उद्योग का रूप ले चुका है और इस दायरा लगातार बढ़ रहा है. उल्लास कुमार कहते हैं, "केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अध्यापकों के लिए एक नया मंच बनाया है जिसे नेशनल टीचर्स प्लेटफॉर्म कहते हैं. वे बहुत ही कंपनियों और एनजीओ को बुला रहे हैं ताकि अध्यापकों को उसका फायदा मिल सके. तो कई पहलें हो रही हैं. सरकार जितना भी कर रही है, वह अच्छी बात है. लेकिन अभी और भी ज्यादा करने की जरूरत है.”

मजेदार हुई पढ़ाई

ई-लर्निंग के तहत ऐसी डिजिटल ऑडियो और वीडियो सामग्री तैयार की जा रही है, जिससे पढ़ाना और पढ़ाना दोनों सहज और मजेदार बने. दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में कंप्यूटर टीचर विवेक पाण्डेय कहते हैं, "डिजिटल सामग्री से चीजें आसान हो गयी हैं. सिलेबस की जितनी भी किताबें हैं, वह एक सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन में आ गयी हैं. स्मार्टक्लास का चलन बढ़ रहा है. किताब पीडीएफ की शक्ल में प्रोजेक्टर पर दिखती हैं. साथ में वीडियो होते हैं. आकृतियां होती हैं. छात्रों के लिए भी इस तरह पढ़ना एक मजेदार अनुभव होता है. अब उन्हें चीजें ज्यादा रटनी नहीं पड़ती हैं.”

विवेक पाण्डेय बताते हैं कि अब टीचर और छात्र व्हाट्सग्रुप से जुड़े हैं तो समस्या का तुरंत समाधान हो जाता है. इसके अलावा इंटरनेट पर उनके पाठ्यक्रम से जुड़ी ऑडियो वीडियो सामग्री या उसके लिंक भी ऐसे ग्रुपों में शेयर की जा सकती हैं. दिल्ली के लगभग सारे स्कूलों में कंप्यूटर लैब बनायी गयी हैं और उनके लिए टीचर भी अलग से मुहैया कराये गये हैं. सरकार की तरफ से बराबर निगरानी भी होती है. लेकिन देश के हर हिस्से में सभी बच्चों तक पहुंचना अब भी बड़ी चुनौती है.

प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो रहे श्रवण झा कहते हैं कि ई-लर्निंग के लिए सामग्री की कोई कमी नहीं हैं लेकिन ऐसे प्लेटफॉर्म्स की कमी है जिसके जरिए उसे छात्रों को दिखाया जा सके. उनके मुताबिक, "भारत के हर गांव में कंप्यूटर आयेंगे, ऐसा मुझे नहीं लगता, लेकिन गांव गांव में टैबलेट आयेगा और मोबाइल जरूर आयेगा क्योंकि इस पर खर्चा कम होता है. टैबलेट या मोबाइल ही फ्यूचर है. इसलिए ई-लर्निंग और शिक्षा की योजना हमें इनके इर्द गिर्द ही तैयार करनी होंगी.”