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इच्छा मृत्यु की इजाजत देना कितना सही

आभा मोंढे (संपादनः ए जमाल)९ जुलाई २०१०

कई बार लोग इतने बीमार होते हैं कि उनके सभी अंग काम करना बंद कर देते हैं. या वे कोमा में चले जाते हैं. क्या ऐसे लोगों को मशीनों पर जिंदा रखने की कोशिश करनी चाहिए, या उन्हें इस पीड़ा से छुटकारा दे दिया जाना चाहिए.

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तस्वीर: AP

जर्मनी में इच्छा मृत्यु यानी मर्सी किलिंग पर प्रतिबंध है. लेकिन मर्सी किलिंग दो तरह से हो सकती है. एक है एक्टिव मर्सी किलिंग और एक पैसिव. जर्मनी के कार्ल्सरूहे में इसी मुद्दे पर चर्चा हो रही है कि एक्टिव और पैसिव मर्सी किलिंग में क्या फर्क है. वर्तमान परिभाषा के हिसाब से एक्टिव मर्सी किलिंग है कि गंभीर बीमारी से पीड़ित किसी मरीज़ को जिसके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं हो, उसे किसी तरह का इंजेक्शन दे कर मुक्त कर दिया जाए. जबकि पैसिव मर्सी किलिंग का मतलब है कि कोमा में पड़े व्यक्ति या फिर सालों से मशीनों पर ज़िन्दा व्यक्ति की मशीने बंद कर दी जाएं. उसे कृत्रिम तरीके से खाना देना बंद कर दिया जाए, ताकि उसका अंत हो जाए.

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तस्वीर: Dpa

ये विवाद शुरू हुआ जर्मनी में एक महिला की बीमारी के साथ. जो पांच साल तक कोमा में रही. कोमा में जाने से पहले उसने कहा कि अगर किसी कारण से वह कोमा में चली जाती है तो उसका कृत्रिम आहार बंद कर दिया जाए और उसे सम्मान से मरने दिया जाए. उसकी बेटी ने इस मामले में वकील से राय ली और इसके बाद मरीज़ को कृत्रिम रूप से दिया जा रहा खाना बंद कर दिया गया. हालांकि नर्सों ने इस पर तुरंत एक्शन ली और उस महिला को बचाने की कोशिश की लेकिन उसके दिल ने काम करना बंद कर दिया जिसके बाद उसकी मौत हो गई.

मामला अदालत तक पहुंचा लेकिन बेटी और उसके वकील को बरी कर दिया गया. इस मुकदमे में वकील वोल्फगांग पुट्ज पर भी आरोप लगाए गए. ये एक बहुत मुश्किल फैसला था. क्योंकि मरीज़ की इच्छा सम्मानजनक मृत्यु की थी और राज्य का कर्तव्य कहता है जीवन बचाओ. फैसले में एक बात नई है कि अगर मरीज़ की इच्छा है कि उसे मशीन पर जिन्दा रखने की बजाए सम्मानजनक मौत दी जाए तब ऐसी स्थिति में सांस लेने की मशीन हटाना या जिन्दा रखने वाली दूसरी मशीनों को निकालना पैसिव मर्सी किलिंग के तहत अनुमति होगी.

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तस्वीर: DW / Almakhlafi

"अदालत ने मरीज़ों के हित में एक अहम फैसला लिया है. महत्वपूर्ण है कि बीमारी की डिग्री और स्टेज से परे मरीज़ की इच्छा का ध्यान रखा गया है. मरीज़ खुद का क्या करना चाहता है इस का अधिकार उसे देना इस फैसले की अहम बात है." -सरकारी वकील फ्राउके काट्रिन शॉइटन

इस फैसले के साथ डॉक्टरों, रिश्तेदारों, नर्सों को अधिकारिक तौर पर सुरक्षा मिल गई है. खास तौर पर जब जीवन रक्षक प्रणाली हटाने की बात हो. इस फैसले से उन परिजनों और उन लोगों की स्थिति भी मज़बूत होती है जो बहुत गंभीर बीमारी की स्थिति में जीवन रक्षक मशीनों पर निर्भर नहीं रहना चाहते. लेकिन इस फैसले में एक नई बात ये भी है कि इच्छा मृत्यु तब भी संभव हो सकेगी जब गंभीर बीमारी या कोमा के कारण मरीज़ मौत के नज़दीक नहीं हो. लेकिन इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि मरीज़ लाइलाज बीमारी से ग्रस्त हो और उसने अपनी मौत की इच्छा प्रकट की हो.

"मैंने आखिर तक इस बात के लिए लड़ाई की कि मरीज़ों को उनका अधिकार मिल सके. उन्हें आज़ादी हो कि वे बीमारी की किसी भी स्टेज पर ये फैसला ले सकें कि मैं ये इलाज चाहता हूं या नहीं. मरीज़ चाहे तो इलाज के लिए ना भी कह सकता है. उनकी इस इच्छा को स्वीकार करना, जैसा कि यहां कहा गया, फिर चाहे इस इलाज से इनकार करने का मतलब मृत्यु को स्वीकार करना ही क्यों न हो" -बरी हुए वकील वोल्फगांग पुट्ज

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तस्वीर: AP

अस्पताल में या फिर वृद्धाश्रम जहां गंभीर तौर पर बीमार लोग मौजूद हों, उनकी देखभाल करने वाले लोगों को भी पता है कि अगर मरीज़ की इच्छा है कि उसे स्वाभाविक तौर पर मरने दिया जाए और किसी मशीन पर लटका कर न रखा जाए तो उस मरीज़ की इस इच्छा का सम्मान किया जाए. कानून ने बहुत बहस करके एक फैसला तो सुनाया है लेकिन उस चमत्कार का क्या जो कभी कभी विज्ञान के मुंह को भी बंद कर देता है.