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इतिहास में आज: 05 फरवरी

४ फ़रवरी २०१४

अनाज, फल, सब्जियां या फिर किसी और पैदावार में कोई खास गुण लाने के लिए जब उसे जेनेटिक या डीएनए के स्तर पर बदल दिया जाता है तो वह एक जीएम उत्पाद बनता है. आज के ही दिन ऐसा पहला उत्पाद बाजार में आया था.

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Tomaten
तस्वीर: Getty Images

आम धारणा बन गई है कि आजकल खाने पीने की कोई चीज शुद्ध नहीं हैं. कीटनाशकों और दूसरे रसायनों के इस्तेमाल से खेतों में उगाई जा रही हर फसल में बदलाव आ जाता है. लेकिन जानबूझ कर फसल में कोई खास गुण लाने के लिए जब उसकी आनुवंशिक संरचना में बदलाव लाया जाता है तो वह फसल जीन संवर्धित या जीएम क्रॉप बन जाती है. 5 फरवरी, 1996 को इंग्लैंड में पहली बार जीएम टमाटरों से बनी प्यूरी वहां के बाजारों में बिकनी शुरू हुई. यह प्यूरी उन खास जीएम टमाटरों से बनाई गई थी जिसमें से टमाटर को सड़ाने वाला जीन या आनुवंशिक सूचक अलग कर दिया गया था. यही कारण है कि टमाटर बहुत सालों तक जीएम उत्पादों का प्रतीक रहा. इसके पहले 1994 में अमेरिका में पहली बार व्यावसायिक स्तर पर जीएम टमाटर बेचे गए थे.

बहुत सारी जीएम फसलों को कीड़े, बीमारियों, रसायनों या बुरे मौसम से बचाने वाले खास गुण डाले जाते हैं. कई बार फसलों को और पोषक बनाने और भारी मात्रा में उगाने के लिए भी उनकी जेनेटिक संरचना में बदलाव किए जाते हैं. खाने पीने की चीजों के अलावा बायोफ्यूल बनाने में काम आने वाले पौधों के डीएनए में भी अंतर लाया जाता है जिससे व्यावसायिक फायदे मिलते हैं. पहली बार उगाए जाने से लेकर अब तक हर साल पूरे विश्व में जीएम क्रॉप्स को उगाने वाले क्षेत्र में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. 1996 से 2012 तक तो इस क्षेत्रफल में 100 गुना वृद्धि हुई है. इस तरह आधुनिक खेती के इतिहास में जीएम फसलें सबसे तेजी से स्वीकार की गई तकनीक बन गई है.

भारत में जीएम बीजों के परीक्षण पर रोक लगी हुई है. भारतीय सुप्रीम कोर्ट की तकनीकी समिति के सुझावों में कहा गया था कि खेतों में जीन संवर्धित फसलों के परीक्षण पर रोक लगाई जानी चाहिए. समिति के मुताबिक रोक तब तक लगी रहनी चाहिए जब तक सरकार सुरक्षा और नियामक ढांचा तैयार नहीं कर लेती. ट्रांसजेनिक फसल के समर्थन में बोलते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि उनकी सरकार अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों के आगे नहीं झुकेगी. इसके विपरीत जीएम फसलों को खतरनाक बताते हुए पर्यावरणवादी गुटों ने कहा है कि इस बात के वैज्ञानिक सबूत हैं कि वे न सिर्फ लोगों के लिए बल्कि जैव विविधता के लिए भी हानिकारक हैं.