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इतिहास में आज: 28 जुलाई

२६ जुलाई २०१४

उनकी त्वचा का रंग काला था, बस इसी वजह से वो गुलाम बने रहे. मालिक को जब गुस्सा आता तो उन पर कोड़े बरसा देता. लेकिन आज के दिन न्यूयॉर्क में ऐसा कुछ हुआ कि श्वेत समाज को अपनी बर्बरता साफ दिखाई पड़ी.

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आई हैव ए ड्रीम: किंगतस्वीर: AFP/Getty Images

28 जुलाई 1917, चकाचौंध से भरी अमेरिका की आर्थिक राजधानी न्यूयॉर्क में 10,000 लोगों ने मौन मार्च निकाला. इस दौरान कहीं कोई नारा नहीं था, कोई शोर नहीं था. ऐसा लग रहा था मानो किसी की अंतिम यात्रा निकल रही हो. मौन मार्च के जरिए अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिकों ने श्वेत समाज के जुल्म और बर्बरता के खिलाफ सब कुछ कह दिया. चुपचाप पैदल चलते हुए वो यही गुहार कर रहे थे कि अश्वेत लोगों को बात बात पर कोड़े न मारे जाएं.

कई अमेरिकी लेखकों के मुताबिक वो शांति भरा मार्च हजारों शब्दों से भी ज्यादा गूंज रहा था. प्रदर्शन में कई रेड इंडियन, हिस्पैनिक मूल के लोग, एशियाई और श्वेत कार्यकर्ताओं ने भी हिस्सा लिया. न्याय की मांग करते इन लोगों ने ब्रदरहुड और सिस्टरहुड का अधिकार मांगा.

इससे पहले मई 1917 में ईस्ट सेंट लुईस में दंगे हुए थे, जिनमें श्वेत दंगाइयों ने कई अश्वेतों की हत्या कर दी. बताया जाता है कि दंगों में 40 से 250 तक लोग मारे गए. एक तरफ स्वतंत्र अमेरिका का दावा था तो दूसरी तरफ ऐसी ज्यादती. मौन मार्च के जरिए प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन तक भी अपनी बात पहुंचाना चाहते थे. विल्सन ने वादा किया था कि वो इस अन्याय को रोकने के लिए कानून लाएंगे. लेकिन उनके कार्यकाल में नस्ली हिंसा बहुत ज्यादा बढ़ी.

ये दौर काफी लंबे समय तक चला. आखिरकार 1960 के दशक में एक एक कर कई अमेरिकी राज्यों ने अश्वेत नागरिकों को बराबरी के अधिकार देने शुरू किए. इसमें मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने बड़ी भूमिका निभाई. किंग ने 1963 में वॉशिंगटन के कैपिटोल के पास "आई हैव ए ड्रीम" के नाम से मशहूर हुआ उनका भाषण वह मोड़ था जिसने गोरे और कालों के बीच दीवार गिराने का जोश भर दिया. सिर्फ 35 साल के किंग को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया लेकिन 40 से कम की उम्र में उनकी हत्या भी कर दी गई. किंग के संघर्ष की वजह से आज अमेरिका में नस्लीय भेदभाव का सामाजिक रूप से बहिष्कार किया जाता है.