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इन्क्रिप्शन नहीं रवैये की गांठ खोले सरकार

२२ सितम्बर २०१५

होना तो ये चाहिए था कि 21वीं सदी के डेढ़ दशक बाद सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर भारत एक शानदार छलांग लगाता हुआ दिखता. लेकिन यहां तो उल्टी गंगा बह रही है. इन्क्रिप्शन पॉलिसी के प्रस्ताव तो यही दिखाते हैं.

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तस्वीर: Fotolia/Yong Hian Lim

नई ऊंचाइयों की तरफ जाने के बजाय सरकार के कारिंदे उचक उचक कर अपने ही लोगों की निगरानी पर तुले हैं. डिजीटल मीडिया के लिए प्रस्तावित इस नई नीति में कुछ ऐसी ही उचक भरी हरकत नजर आती है. सरकारी व्यवस्थाओं में नई खोजों, नए उपकरणों और नई चुनौतियों के लिए खुद को तैयार करने की प्रवृत्ति कम है. और रवैया है रोक का, डर का, और कानूनी दांवपेंच में चीजों को उलझाने का.

आईटी एक्ट 2000 के सेक्शन 84 ए के तहत ये नए प्रावधान किए जाने का प्रस्ताव है. अगले महीने 16 अक्टूबर तक सुझाव मांगे गए हैं. डैटा को अक्षुण्ण रखने की जो बात कही गई है उसके तहत ईमेल, संदेश, और अन्य डैटा भी आएंगे. शिक्षा और संस्कृति में अपने विवादास्पद प्रयोगों और बदलावों के बाद अब सरकार नये मीडिया, सूचना प्रोद्योगिकी और मीडिया के पब्लिक स्फीयर यानी लोकवृत्त के बाहर एक और कड़ा घेरा कसने पर आमादा है. इसीलिए इन्क्रिप्शन उत्पादों, इससे जुड़ी प्रौद्योगिकी को कानून के दायरे में लाने की मंशा से भला कैसा अचरज. फिर भी इस प्रस्तावित नीति में ये बातें कितनी अजीबोगरीब हैं कि अगर ईमेल को इन्क्रिप्टड यानी कूट भाषा में तब्दील करने वाली प्रणाली प्रस्तावित नियमों के तहत सरकार द्वारा स्वीकृत और वैधानिक नहीं है तो वो गैरकानूनी मान ली जाएगी. यानी ईमेल के मामले में हमें अपने सारे मेल किसी अलग डॉक्युमेंट में कॉपी पेस्ट और और स्टोर करते रहने होंगे. ये टेक्स्ट क्या होंगे क्या लिखित या वीडियो, ऑडियो और ग्राफिक विवरण भी? और डिजीटली सुरक्षित सूचना को “प्लेन टेक्स्ट” के तौर पर सेव कर रख देंगे तो उसकी हिफाजत की गारंटी कौन देगा. क्या कंपनी, क्या उत्पाद, क्या आईटी सेल, क्या सरकार या उसकी ये प्रस्तावित नीति?

आम लोगों के डिजीटल व्यवहार और वर्चुअल दुनिया की बढ़ती लोकप्रियता से सरकारें घबरा गई हैं. भारत सरकार भी क्या मान बैठी है कि वर्चुअल दुनिया में अगर वाकई लोकशाही आ गई तो उसकी नीतियों, नारों और दावों, वादों की सुध कौन लेगा. लगता तो यही है कि अपने राजनैतिक और वैचारिक एजेंडे की खातिर सरकार डिजीटल अभिव्यक्ति को दबाना चाह रही है. और इसके दायरे में जाहिर है सबसे पहले वही लोग आएंगे जो अपने उसूलों, विचारों, नागरिक जवाबदेहियों और राजनैतिक चिंतनों और चिंताओं की वजह से सरकार की हां में हां नहीं मिलाते हैं और सत्ता व्यवस्था के हमलों के खिलाफ एक प्रतिरोध बनाए रखते हैं. इस प्रतिरोध की एक धारा इधर नए मीडिया में फूटी है तो डंडा लेकर सरकार वहां भी पहुंच गई है. पहले सेक्शन 66 ए को लेकर विवाद थमा भी नहीं कि अब ये सेक्शन 84 ए और उसकी ये इन्क्रिप्शन नीति.

राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले पर तो सरकार जब चाहे पहले से मौजूद कानूनों के तहत संदिग्धों से पूछताछ और उनकी धरपकड़ कर सकती है, करती ही रही है, फिर आखिर ये 90 दिन तक डाटा को सुरक्षित रखने का फरमान क्यों. क्या उसे अपने लोगों पर भरोसा नहीं? क्या सब देशद्रोही हैं? जो अपने विवेक से लिखते बोलते हैं और तोता रटंत का विरोध करते हैं. तो जो सरकार अपने ही देशवासियों की हर वक्त निगरानी करने पर तुली हो, जिसे अपने ही नागरिकों की अखंडता पर शक हो तो फिर क्या कहा जा सकता है. हर कोई शक के दायरे में है. पहले चालढाल, हावभाव, रहनसहन, खाना ओढना, पोशाक आदि पर शक किए जाते रहे हैं अब लिखने बोलने और सोचने पर न सिर्फ पहरे हैं बल्कि जानलेवा हमले भी किए जा रहे हैं.

अभी तो सोशल मीडिया को इस नीति से अलग रखा गया है. जबकि वहां तो एक पूरी की पूरी अदृश्य हिंदूवादी सेना है जो हर विरोधी विचार पर अपनी नफरत का जाल फेंक देती है. और नए विचारों को तहसनहस कर अट्टहास करती रहती है. काश इस तरह की नीतियों में उन “डिजीटल शूरवीरों” के लिए भी कोई नियम कायदे और कानून बनते. सरकार का ध्यान उन पर भी जाता, उसका इरादा तो उन लोगों पर नजर रखने का लगता है जिनका डिजीटल आचरण उसकी निगाह में “पवित्र” या “शुद्ध” नहीं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी