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समाज

जातिघृणा का घृणित चेहरा

मारिया जॉन सांचेज
४ अक्टूबर २०१७

संविधान में छूआछूत को अपराध माना गया है. लेकिन फिर भी पिछले एक सप्ताह के दौरान गुजरात में दलितों के खिलाफ हिंसा की तीन घटनाएं हुई हैं.

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Indien Symbolbild Angehöriger der Dalit-Kaste
तस्वीर: picture alliance/Pacific Press/S. Paul

मंगलवार की शाम को राज्य की राजधानी गांधीनगर के पास के एक गांव में एक सत्रह-वर्षीय दलित किशोर को केवल इसलिए चाकू मार कर जख्मी कर दिया गया क्योंकि उसने मूंछें रखने का दुस्साहस किया था. इसके दो दिन पहले आणंद जिले के एक गांव में ऊंची जाति के लोगों ने एक दलित युवक की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसने उनका गरबा नाच देखने की गुस्ताखी की थी. 29 सितंबर को भी एक दलित युवक को मूंछे रखने के लिए पीटा गया था.

इसके पहले कई राज्यों से लगातार ऐसी खबरें आती रही हैं जब दलितों को बैंड-बाजे के साथ बारात नहीं निकालने दिया गया या फिर दूल्हे को घोड़ी पर नहीं बैठने दिया गया. केरल जैसे राज्य में भी ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं और जुलाई में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने केरल की राज्य सरकार से दलितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आग्रह किया था. आयोग का कहना था कि जून 2016 से लेकर अप्रैल 2017 के बीच केरल में अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अत्याचार की 883 घटनाएं हुई थीं. मई 2017 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में व्यापक पैमाने पर दलितविरोधी हिंसा हुई थी.

हालांकि संविधान में छूआछूत को अपराध माना गया है और सभी धर्मों, जातियों और समुदायों के नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है लेकिन समाज में हजारों सालों से जड़ जमा कर बैठी हुई जातिगत चेतना का इतनी आसानी के साथ खत्म होना संभव नहीं है. ऊंची जातियों के लोग केवल जन्म के आधार पर अपने को श्रेष्ठ और निचली जातियों और दलितों को हीन एवं हेय मानते हैं. उधर लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण दलितों में अपनी अस्मिता की चेतना और अपने अधिकारों के बारे में जागरुकता बढ़ रही है. इसी के साथ उनमें अपने पारंपरिक नेतृत्व के प्रति अविश्वास भी बढ़ता जा रहा है. क्योंकि चाहे रामदास अठावले हों या रामविलास पासवान और मायावती, ये सभी राजनीतिक नेता अपने अवसरवाद और धन-संपत्ति अर्जित करने में अतिशय रुचि प्रदर्शित करने के कारण बहुत हद तक अपना प्रभाव खोते गए हैं. पिछले कुछ समय के दौरान गुजरात और उत्तर प्रदेश में दलित नेतृत्व की एक नयी, युवा और उग्र पीढ़ी सामने आयी है जो अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा करने के लिए ऊंची जातियों के साथ-साथ पुलिस-प्रशासन को भी टक्कर देने के लिए तैयार है.

भारत में दलित होने के मायने

गुजरात में गौरक्षकों द्वारा दलितों पर ढाए गए अत्याचारों के बाद उभरे जिग्नेश मेवाणी और उत्तर प्रदेश में सहारनपुर की दलित-विरोधी हिंसा के बाद सुर्खियों में आए चन्द्रशेखर आजाद दो ऐसे युवा नेता हैं जिन्होंने बहुत ही थोड़े समय के भीतर अपनी राष्ट्रीय पहचान बनायी है. हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद दलितों के समर्थन में अन्य संगठन भी उठ खड़े हुए हैं. नए दलित नेता और कार्यकर्ता अधिकांशतः अंबेडकरवादी हैं और उनका लक्ष्य केवल राजनीतिक सत्ता हासिल करना नहीं है. वे सामाजिक-आर्थिक समानता हासिल करने के लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं. दलितों के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी इनकी एक बहुत बड़ी प्राथमिकता है.

दलितों के बीच आ रहे इस उभार से पारंपरिक राजनीतिक पार्टियां स्वाभाविक रूप से चिंतित हैं. गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में दलितों के खिलाफ हो रही हिंसा के कारण जातिगत ध्रुवीकरण होने की संभावना बढ़ जाती है. राजनीतिक दल अक्सर धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण करके चुनावी फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. गुजरात में ऊंची जाति का पटेल समुदाय भी राजनीतिक रूप से अपने को संगठित कर रहा है. लेकिन दलितों के बीच पनप रहे आंदोलन का संबंध चुनावी राजनीति से नहीं है, भले ही चुनावों के नतीजों पर उसका असर पड़े. जो भी हो, दलितों के उत्पीड़न को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रंगभेद या नस्लभेद के समकक्ष समझा जाता है और यह भारत की छवि पर एक बहुत बड़ा दाग है. इस दाग से जितनी जल्दी छुटकारा मिले, उतना ही अच्छा है.