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आत्मसम्मान विवाह के सामाजिक मायने

१४ नवम्बर २०१५

आत्मसम्मान विवाह को असंवैधानिक घोषित करने की याचिका खारिज कर मद्रास हाईकोर्ट ने हिंदू धर्म के कर्मकांडीय स्वरूप का विरोध करने वाले प्रगतिशील और तर्कशील लोगों को एक बड़ी राहत, गति और ऊर्जा मुहैया कराई है.

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तस्वीर: Fotolia/davidevison

ऐसे समय में जब इधर भारत में तर्कवादी और वैचारिक आजादी की पक्षधर आवाजों का दमन जोरों पर है और विभिन्न धर्मों में जड़ें जमाए कठमुल्लेपन के खिलाफ साहसी लोग सामने आ रहे हैं, ऐसे में अदालतें भी मानो इंसाफ और विवेक की आवाज मिलाते हुए आधुनिक भारत के रास्ते को मजबूत कर रही हैं. मद्रास हाईकोर्ट ने जागरूकता की एक लाइन खींची है. इसे ही और बड़ा किए जाने की जरूरत है.

तमिलनाडु देश का एकमात्र राज्य है जहां ‘स्वयंवरथाई' यानी आडंबरहीन आत्मसम्मान को कानूनी मान्यता हासिल है. आत्मसम्मान विवाह से तात्पर्य है पुरोहित और पंडिताई के बिना और मंगलसूत्र और सप्तपदी जैसे कर्मकांडों को किए बिना किया गया विवाह. 1967 में जब सीएन अन्नादुराई तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन करते हुए आत्मसम्मान विवाह को कानूनी मान्यता देने की पहल की थी. इसके लिये बाकायदा 1968 में कानून बनाया गया था.

इस आत्मसम्मान विवाह कानून की जड़ें दक्षिण भारत के द्रविड़ आंदोलन में थीं. ध्यान देने की बात ये है कि प्रसिद्ध समाज सुधारक ईवीआर पेरियार ने 1925 में ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरोध में द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत की थी. इस आंदोलन का उद्देश्य था स्त्री अधिकारों और तर्कशीलता को बढ़ावा और कर्मकांड, कट्टरता और जातिवाद का विरोध. इसी आंदोलन ने आत्मसम्मान विवाह को बढ़ावा दिया था. इस विवाह परंपरा का मुख्य जोर इस बात पर है कि दो हिंदुओं के विवाह के लिये पंडित-पुरोहित की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है. सादे से समारोह में अपने परिचितों और रिश्तेदारों की उपस्थिति में सिर्फ अंगूठी और माला पहना कर भी विवाह संपन्न हो सकता है.

इस विवाह को परंपरावादियों ने इस दलील के साथ हमेशा चुनौती दी कि पंडित की उपस्थिति और सप्तपदी के बगैर किया गया विवाह हिंदू रीति-रिवाजों के खिलाफ है, लिहाजा इसे अवैध घोषित किया जाना चाहिए. हाईकोर्ट में दाखिल की गई याचिका भी इसी सोच का नतीजा थी.

लेकिन अगर हिंदू धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक आख्यानों पर भी नजर डाली जाए तो स्वयंवर और गंधर्व विवाह के अनेक उल्लेख मिलते हैं. चाहे वो अर्जुन और सुभद्रा का विवाह हो या दुष्यंत और शकुंतला का बंधन. सीता का स्वयंवर हो या द्रौपदी का. ऐतिहासिक नजरिये से भी देखें तो वैदिक परंपराओं में ब्राह्मणवादी और कर्मकांडी अनुष्ठानों का उल्लेख नहीं है. बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों और परवर्ती युग में मुगलों के बढ़ते आधिपत्य से घबराकर ब्राह्मणवादियों ने हिंदू धर्म की कथित अस्मिता को बचाए रखने का हवाला देकर धार्मिक परंपराओं को और कट्टर और रूढ़िबद्ध किया. वैवाहिक कर्मकांड भी इसी का हिस्सा है. हालांकि सिर्फ दक्षिण के द्रविड़ आंदोलन में ही नहीं बल्कि उत्तर भारत में 19वीं सदी के समाज सुधार के आंदोलनों ने भी विवाह और अन्य रीति रिवाजों और अनुष्ठानों को सुधारने की कोशिश की थी. ये अलग बात है कि आत्मसम्मान विवाह के रूप में इसे संस्थागत सिर्फ तमिलनाडु में ही किया गया और कहा जा सकता है कि ऐसा प्रगतिशील कदम उठाने में उत्तर भारत पिछड़ा ही साबित हुआ.

मद्रास हाईकोर्ट ने आत्मसम्मान विवाह को मान्यता देते हुए पिछले 47 साल से तमिलनाडु में चली आ रही प्रगतिशील और स्वस्थ तार्किक परंपरा को ही मान्यता दी है. इसका विरोध करना वैचारिक आजादी नहीं कही जा सकती, ये खुद को और समाज को उन्हीं जकड़बंदियों में धकेलने की एक मुहिम का ही हिस्सा माना जाएगा जिसकी नई और डरावनी छायाएं हम इधर 21वीं सदी के डेढ़ दशक पूरे करते भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में देख रहे हैं. ये एक तरह से प्रतिरोध की ऐतिहासिकता के प्रति एक नकारात्मक विरोध है.

अगर पिछड़पेन का खतरा एक सच्चाई है तो तमिलनाड की सालों पुरानी परंपरा और हाईकोर्ट का रुख भी एक बड़ी सच्चाई है. आधुनिक भारत में ये अलग अलग सच्चाईयां बेशक टकरा रही हैं, बेशक ये विडम्बना है लेकिन इतिहास गवाह है कि उदार, सम्भाव और सहिष्णु मूल्यों को कभी भी दरकिनार नहीं किया जा सका है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी