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समाज

एसिड हमलों पर अंकुश लगाने में नाकाम है सरकार

प्रभाकर मणि तिवारी
१० जनवरी २०२०

भारत में एसिड हमलों के मामले घटने के बदले लगातार बढ़ रहे हैं. सख्त कानून बनाने के बावजूद एसिड हमलों पर अंकुश लगाने में सरकार विफल रही है. इसकी प्रमुख वजह है अपराधियों को सजा देने में देरी.

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Indische Opfer von Säureattentaten Organisation Stop Acid Attacks
तस्वीर: stopacidattacks.org

वर्ष 2005 में एसिड हमले का शिकार बनी लक्ष्मी अग्रवाल की आपबीती पर बनी फिल्म छपाक ने एक बार इस ज्वलंत समस्या को सतह पर ला दिया है. विडंबना यह है कि इस घटना पर काफी शोरगुल मचने और इसके देश-विदेश तक सुर्खियां बटोरने और ऐसी घटनाएं रोकने के लिए कानून बनने के बावजूद भारत में ऐसे मामलों पर अंकुश नहीं लग सका है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि ऐसी घटनाएं कम होने की बजाय लगातार बढ़ रही हैं. आम तौर पर जागरुक और शांत समझा जाने वाला पश्चिम बंगाल तो एसिड हमलों के मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि ऐसे मामलों में अभियुक्तों को सजा मिलने की दर बेहद कम होना इस पर अंकुश नहीं लगने की एक प्रमुख वजह है. ज्यादातर मामलों में अभियुक्त कानूनी खामियों का लाभ उठा कर या तो बच निकलते हैं या फिर उनको मामूली सजा होती है.

बढ़ते मामले

बीते दिसंबर में कुछ असामाजिक तत्वों ने बंगलुरू में एक महिला बस कंडक्टर पर एसिड फेंक दिया. उसके दो दिनों के भीतर ही मुंबई में भी एक युवती पर ऐसा हमला हुआ. उसी समय उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में भी एक युवती पर एसिड हमला किया गया. ये घटनाएं दिखाती हैं कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद एसिड हमलों की घटनाएं थमने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं. एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि एसिड हमलों के मामले में पश्चिम बंगाल ने उत्तर प्रदेश को पीछे छोड़ कर पहला स्थान हासिल कर लिया है. इससे पहले वर्ष 2016 में भी बंगाल पहले स्थान पर था. उस साल राज्य में ऐसी 83 घटनाएं हुई थीं. वर्ष 2017 में ऐसे मामलों में कुछ कमी आई और कुल 54 मामले दर्ज हुए. लेकिन इस साल 53 मामलों के साथ बंगाल ने उत्तर प्रदेश को काफी पीछे छोड़ दिया है. उत्तर प्रदेश में ऐसे 43 मामले दर्ज हुए.

Kolumbien Protest gegen Gewalt gegen Frauen in Bogota - Patricia Espitia, Säureopfer
दूसरे देशों में भी है ये समस्यातस्वीर: Getty Images/AFP/L. Acosta

भारत में वर्ष 2014 में 203 घटनाएं हुई थीं जो अगले साल यानी 2015 में बढ़ कर 222 तक पहुंच गईं. इसी तरह 2016 में ऐसे 283 मामले दर्ज किए गए थे. वर्ष 2017 में इनकी तादाद कुछ घट कर 252 तक आई थी. 2018 में ऐसे 228 मामले दर्ज हुए हैं. लेकिन एसिड हमलों के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए काम करने वाले संगठनों का दावा है कि यह तादाद असली घटनाओं के मुकाबले बहुत कम है. ऐसे कई मामले दर्ज ही नहीं होते. इन संगठनों का कहना है कि देश में रोजाना एसिड हमले की औसतन एक घटना होती है.

कानून में बदलाव

एसिड हमले की घटनाएं तो देश में पहले से ही होती रही हैं. लेकिन वर्ष 2013 में पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल की जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी घटनाओं को गंभीर अपराध माना था. शीर्ष अदालत ने तब सरकार, एसिड विक्रेता और एसिड हमलों के पीड़ितों के लिए दिशानिर्देश जारी किया था. सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश के मुताबिक एसिड सिर्फ उन दुकानों पर ही बिक सकता है जिनको इसके लिए पंजीकृत किया गया है. लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद भी बाजार और दुकानों में खुलेआम धड़ल्ले से एसिड बिकता है.

उस याचिका पर फैसले के बाद सरकार ने भारतीय दंड संहिता में 326 ए और 326 बी धाराएं जोड़ी थीं. इन धाराओं के तहत एसिड हमले को गैर-जमानती अपराध मानते हुए इसके लिए न्यूनतम दस साल की सजा का प्रावधान रखा गया था. गैर-सरकारी संगठन स्टाप एसिड अटैक्स के आशीष शुक्ल बताते हैं, "देश में हर साल 250 से तीन सौ ऐसे मामले दर्ज किए जाते हैं. लेकिन इनमें से कई घटनाएं पुलिस तक नहीं पहुंचतीं. ऐसे में एसिड हमलों की असली तादाद एक हजार के पार हो सकती है.” एसिड सर्वाइवर फाउंडेशन आफ इंडिया के संयोजक डी. रायचौधरी कहते हैं, "ऐसे ज्यादातर मामलों में अभियुक्तों की ओर से पीड़िता और उसके परिजनों को पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराने की धमकी दी जाती है. इस वजह से खासकर पिछड़े तबके के लोग पुलिस के पास नहीं जाते.”

जीएमएफ को लक्ष्मी का संदेश

पुनर्वास की कोशिश

सरकार ने वर्ष 2016 में दिव्यांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम में संशोधन करते हुए उसमें एसिड हमलों के शिकार लोगों को भी शारीरिक दिव्यांग के तौर पर शामिल करने का प्रावधान किया था. इससे शिक्षा और रोजगार में उनको आरक्षण की सुविधा मिलती है. ऐसे लोगों को सरकारी नौकरियों में तीन फीसदी आरक्षण का लाभ मिलता है.

सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि हमलावरों के खिलाफ और सख्त कार्रवाई नहीं करने और पीड़ितों के प्रति और ज्यादा उदारता नहीं दिखाने तक ऐसे हमलों पर अंकुश लगाना संभव नहीं है. डी. रायचौधुरी कहते हैं, "मौजूदा कानून में एसिड हमलों से अंधे होने वाले लोगों को ही पीड़ित माना जाता है. लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसे हमलों के शिकार लोगों की आंखें भले बच जाएं, चेहरा पूरी तरह बिगड़ जाता है. नया कानून इस विषय पर मौन है.” वह कहते हैं कि एसिड हमलों की घटनाएं काफी बढ़ने के बावजूद देश में ऐसे मामलों में अभियुक्तों को सजा मिलने की दर काफी कम है.

एनसीआरबी के आंकड़े भी रायचौधुरी की दलीलों की पुष्टि करते हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2016 में दर्ज ऐसे 203 मामलों में से महज 11 में ही अभियुक्तों को सजा मिली थी. वर्ष 2018 में दर्ज 228 मामलों में से महज एक ही अभियुक्त को सजा मिल सकी है. ह्यूमन राइट्स लॉ में एसिड हमलों के खिलाफ अभियान की निदेशक शाहीन मल्लिक कहती हैं, "समस्या कानून में नहीं, बल्कि उसे लागू करने में है. ऐसे मामले फास्ट ट्रैक अदालतों के पास भेजे जाते हैं. लेकिन वहां भी त्वरित गति से सुनवाई और फैसले नहीं होते.” वह कहती हैं कि हजारों मामले विभिन्न वजहों से सामने ही नहीं आते.

एसिड हमलों की शिकार लक्ष्मी अग्रवाल कहती हैं, "समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता भी ऐसे अपराधों के लिए जिम्मेदार है. समाज में शुरू से ही लड़कों के मन में यह भावना भर दी जाती है कि वह लोग महिलाओं से श्रेष्ठ हैं.”

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