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कब छुआछूत से ऊपर उठेगा भारत?

५ दिसम्बर २०१५

जिस वक्त भारत में आजादी के आंदोलन चल रहे थे, उस वक्त समान सामाजिक हकों के लिए भी आवाजें उठ रहीं थीं. कानूनी रूप से हक मिले भी, लेकिन देश आज भी छुआछूत के खेल में फंसा हुआ है.

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Indien Seva Sangha Temple Hauz Khas Delhi
तस्वीर: picture alliance/John Henry Claude Wilson/Robert

विश्व के महान धर्मों के मानने वालों में यहूदी, पारसी और हिन्दू अन्य धर्मावलंबियों को अपनी ओर आकृष्ट करके उनका धर्म बदलने में कोई रुचि नहीं रखते. लेकिन दुनिया में संभवतः हिन्दू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो अपने मानने वालों के एक बहुत बड़े समुदाय को अपने से दूर ठेलने की हरचंद कोशिश करता है और उन्हें अपने मंदिरों में न प्रवेश करने की इजाजत देता है, न देवताओं की पूजा करने की. उल्टे वह इन्हें अछूत बताकर इनकी छाया से भी दूर रहने की कोशिश करता है और इस क्रम में उन्हें बुनियादी मानवीय अधिकारों से पूर्णतः वंचित करके लगभग जानवरों जैसी स्थिति में रहने के लिए मजबूर करता है.

आज भी छुआछूत

और यह सब जाति के नाम पर किया जाता है. मंदिर में प्रवेश करने और पूजा-अर्चना करने का अधिकार केवल सवर्ण हिंदुओं यानि ऊंची जाति के हिंदुओं को ही है. अछूत समझी जाने वाली जातियों (जिन्हें अब दलित कहा जाने लगा है) को यह अधिकार नहीं है. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत के विभिन्न हिस्सों में उठ खड़े समाज सुधार आंदोलनों का एक लक्ष्य इन स्थिति को बदलना भी था. इसीलिए 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में केरल और कई अन्य राज्यों में मंदिर प्रवेश आंदोलन चले और अनेक जगहों पर दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार मिला. आजादी मिलने के बाद देश ने अपने लिए संविधान स्वीकार किया, उसमें सभी नागरिकों की बराबरी के सिद्धांत को दृढ़ता से स्थापित किया गया और छुआछूत को गैरकानूनी करार दे दिया गया.

लेकिन कानून बनाने से हजारों सालों से चली आ रही मानसिकता नहीं बदलती. इसलिए आज भी दलित द्वारा पकाए खाने को स्कूल के बच्चों द्वारा न खाने, दलितों को उनकी औकात बताने के लिए उन्हें नंगा करके घुमाने, हिंसा और बलात्कार का शिकार बनाने, उनके घर फूंकने और उनकी सामूहिक हत्या करने की घटनाएं होती रहती हैं.

कुमारी शैलजा का वाकया

इसलिए जब पिछले दिनों संसद में भारतीय संविधान के निर्माता माने जाने वाले दलित नेता और विचारक भीमराव अंबेडकर की 60वीं पुण्यतिथि पर संविधान दिवस मनाया गया, तब राज्यसभा में हुई चर्चा के दौरान कांग्रेस की नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने अपने साथ हुआ एक वाकया बयान किया और कहा कि 2013 में जब वह द्वारका गई थीं, तो वहां मंदिर में पुजारी ने उनसे उनकी जाति पूछी थी.

कुमारी शैलजा दलित हैं और उन्हें इस घटना ने इतना आहत किया कि वे इसकी जानकारी देने के क्रम में अपने आंसू नहीं रोक सकीं. हैरानी की बात यह थी कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उनके बयान का विरोध किया और केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने तो इसे उसी तरह का बनावटी बयान बता डाला जैसा वित्त मंत्री अरुण जेटली की राय में उन लेखकों और कलाकारों का विरोध था जिन्होंने देश में बढ़ रही असहिष्णुता के खिलाफ अपने पुरस्कार वापस किए थे. बाद में स्थिति स्पष्ट होने पर उन्होंने अपने बयान पर खेद प्रकट किया.

ठंडे पड़ चुके आंदोलन

हकीकत यह है कि आजादी के लिए हुए संघर्ष के दौरान जो सामाजिक जागरूकता और आधुनिक चेतना पैदा हुई थी, आज उसकी चमक काफी कुछ फीकी पड़ चुकी है. संविधान में प्रदत्त अनेक अधिकार केवल कागज पर ही धरे रह गए हैं. उन पर अमल करने में न तो समाज की ही कोई विशेष रुचि है और न ही राज्य की. समाज सुधार आंदोलन अब ठंडे पड़ चुके हैं. इसलिए समानता के मूल्य के प्रति सम्मान भी समाप्त होता जा रहा है. पारंपरिक रूढ़िग्रस्त चेतना की वापसी हो रही है और इसका प्रमाण खाप पंचायत या उस जैसी ही अन्य पारंपरिक सामाजिक संस्थाओं का बढ़ रहा प्रभाव है. ये संस्थाएं और संगठन आधुनिकता के बरक्स परंपरा को खड़ा करके परंपरा के संरक्षण की बात करती हैं क्योंकि उनकी राय में उसके साथ संस्कृति और धर्म का गहरा नाता है. राजनीति में जातिवाद के बढ़ रहे प्रभाव के कारण भी इस प्रकार की चेतना को बल मिलता है.

कुमारी शैलजा और उनके जैसे दलित नेता यदि वास्तव में जातिभेद की समस्या को गहराई से महसूस करते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अपनी कांग्रेस पार्टी को इस बात के लिए तैयार करना चाहिए कि जिन राज्यों में भी वे सत्ता में है, वहां वह जाति के आधार पर होने वाले उत्पीड़न और अत्याचार के खिलाफ सख्त और कारगर कदम उठाएगी. इसी के साथ-साथ उन्हें अन्य राजनीतिक दलों के साथ भी संवाद बना कर उन्हें इसके लिए सहमत करना चाहिए. यह सही है कि इस मुद्दे पर सभी शाब्दिक सहमति देने को राजी हो जाते हैं लेकिन उसे अमली जामा पहनाते वक्त वे ही बगले झांकने लगते हैं, पर इसके साथ ही यह भी सही है कि कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार