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कब साथ आएंगे भारत और पाकिस्तान

१ अक्टूबर २०१५

भारत और पाकिस्तान के बीच संदेह और अविश्वास का वही पुराना पर्दा पड़ा है. वक्त बीतने के साथ उसे छीज जाना था लेकिन वो और सख्त और कड़ा होता जा रहा है. दो पड़ोसियों की तल्खियां घर से लेकर संयुक्त राष्ट्र के मंच तक कायम हैं.

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Indien Narendra Modi trifft Nawaz Sharif
तस्वीर: Reuters

दुनिया के अधिकांश हिस्सों में बेशक तनाव, हिंसा, युद्ध, संदेह और बरबादी के हालात बने हुए हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र एक ऐसी जगह बना हुआ है जहां दुनिया के झंझावातों से बेअसर नेता अपनी ढपली अपना राग बजाकर अपनी अपनी राह चल पड़ते हैं. एक बार फिर ऐसा ही देखने में आया जब भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों की कड़वाहटें संयुक्त राष्ट्र के मंच पर नुमायां हुई. भारत ने पाकिस्तान को फटकारा तो पाकिस्तान ने पलटवार करने में देर नहीं की. सीमा पार आतंकवाद, सीमा पर गोलीबारी, सीमा उल्लंघन, कश्मीर का मुद्दा, ये सब बातें आरोप प्रत्यारोप बनकर फिर से उभरीं, इन मुद्दों को ताश के पत्तों की तरह फेंटा गया, 193 देशों के मंच संयुक्त राष्ट्र ने सब सुना, तालियां बजीं, चिंताएं उठीं, बातें नोट की गईं, दस्तावेज बने, संयुक्त राष्ट्र का कार्यालय व्यस्त हुआ और इस तरह एक रस्मअदायगी हुई.

बहुत दूर है बातचीत की मेज

भारत और पाकिस्तान आपस में किसी भी स्तर पर बात करने को तैयार नहीं दिखते. दोनों पड़ोसियों के बीच विश्वास बहाली का न कोई जरिया दिखता है न ही कोई कोशिश. सब मान बैठे हैं जैसा चल रहा है चलने दो. जबसे नरेंद्र मोदी ने भारत में और पाकिस्तान में नवाज शरीफ ने कमान संभाली है, बात एक बार फिर उस अंधकार में घिर गई लगती है, जो दोनों देशों के आपसी भरोसे पर विभाजन के बाद से ही मंडराता रहा है. दोनों देशों में संवादहीनता और यकीन की कितनी भारी कमी है, इसका ताजा उदाहरण राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की हालिया बातचीत का रद्द हो जाना है, जो बस जब शुरू होने ही जा रही थी कि रोक दी गई. बातचीत की मेज पर आना जैसे न जाने कितने सागरों, खाइयों और पहाड़ों को लांघना हो गया है. चंद घंटों की दूरी पर रहने वाले दो देशों की एक दूसरे के प्रति ऐसी बेरुखी हैरान तो करती ही थी, अब दोनों देशों के आम अवाम में सवाल भी पैदा कर रही है कि आखिर कहां कौनसा पेंच है जो बातचीत के नाम पर ही एक बड़ी कील की तरह फंस जाता है.

दोनों देशों का अड़ियल रवैया

भारत और पाकिस्तान के बीच तीन युद्ध हो चुके हैं. कश्मीर मामला नाक का सवाल बना हुआ है, सख्त और कट्टर सेना के अलावा राजनैतिक स्तर पर भी चुनौतियों से निपटने में नवाज शरीफ की कमजोरियां और मजबूरियां एक बार फिर दिखने लगी हैं, इधर भारत में संघ की वैचारिकी तले शासन कर रही बीजेपी, अपने कट्टर और धुर राष्ट्रवाद को बनाए रखने के लिए पाकिस्तान के साथ जबानी जंग में जुटी है. बातचीत के लिए या आपसी सौहार्द के लिए कोई सूरत निकलने से पहले गतिरोध पनपने लगते हैं. लगता है दोनों देशों का अड़ियल रवैया दोनों देशों की हुकूमतों की सामरिकता भी है. जो संबंध सुधारने से ज्यादा अपने अपने तात्कालिक और स्थायी लक्ष्यों को इंगित है. आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान स्थायी इंकार की मुद्रा अपनाए हुए है कि वो उसे किसी भी तरह का सपोर्ट देता रहा है. इधर भारत भी एक सख्त लाइन लेकर इस बात पर अड़ गया है कि बात होगी तो आतंकवाद से जुड़े मुद्दों पर ही.

कब टूटेगा यह तनाव?

दोनों देशों के भूगोलों, समाजों और सीमाओं से होता हुआ यह आपसी तनाव संयुक्त राष्ट्र तक दिख जाता है. अब सवाल यही है कि यह तनाव कब टूटेगा? ऐसी कौनसी कूटनीतिक सामर्थ्य या ऐसा कौनसा कूटनीतिक विवेक होगा जिसे दोनों देशों के हुक्मरान और नौकरशाह ठीक से समझ लें और उन पर अमल करें? दोनों देशों की सत्ताओं के घरेलू दबाव उन्हें मित्रता बरतने से रोक रहे हैं, ऐसे में नई शुरुआत की तत्काल जरूरत है. अब ये नई शुरुआत नागरिक बिरादरी के स्तर पर हो या सांस्कृतिक स्तर पर या विशुद्ध राजनीतिक स्तर पर, यह तय करने का काम भी सरकारों का है. क्योंकि दोनों देशों को यह समझना ही होगा कि दक्षिण एशियाई शांति और स्थिरता के लिए उनका एक दूसरे से जुड़े रहना अनिवार्य है. इस अनिवार्यता को किसी भी कीमत पर खारिज नहीं किया जा सकता है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी