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कांग्रेस जैसी गत से बचने की कोशिश कर रही है जर्मनी की एसपीडी

महेश झा
१२ सितम्बर २०१९

भारत की कांग्रेस पार्टी और जर्मनी की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी में कई समानताएं हैं, लेकिन अस्तित्व बचाने के संघर्ष में दोनों पार्टियां में कोई समानता नहीं है. एसपीडी ने सदस्यों के बीच जाने का रास्ता अपनाया है.

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Symbolbild Anstecker der SPD und Fragezeichen, Volksparteien in der Krise
तस्वीर: picture-alliance/chromorange/C. Ohde

भारत की कांग्रेस पार्टी और जर्मनी की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी दुनिया की सबसे पुरानी पार्टियों में शामिल हैं. लेकिन उनमें और भी कई समानताएं हैं. दोनों पार्टियां मध्यमार्गी पार्टियां हैं, दोनों समाज के कमजोर तबकों के हितों के प्रतिनिधित्व का दावा करती है, दोनों समाज के व्यापक तबके का प्रतिनिधित्व करती रही हैं और एक तरह जनता की पार्टियां रही हैं और अब दोनों ही पार्टियां अस्तित्व बचाने के संघर्ष में लगी हैं. एसपीडी पहली बार सीडीयू-सीएसयू और ग्रीन पार्टी के बाद जनमत सर्वे में तीसरे स्थान पर पहुंच गई है. पूरब और पश्चिम के बीच तनाव घटाने वाले चांसलर विली ब्रांट की पार्टी को इस समय सिर्फ करीब 14 प्रतिशत लोग चुनने के लिए तैयार हैं.

पार्टियों पर बढ़ता दबाव

जहां तक समानता की बात है तो कांग्रेस और एसपीडी पार्टियों की समानता बस यहीं तक है. कांग्रेस पार्टी पिछले कई दशकों से जीतने के लिए परिवार और कुनबे का सहारा लेती रही है और पार्टी की लोकतांत्रिक संरचना, सदस्यों और चुनावों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है. इसके विपरीत एसपीडी पार्टी के अंदर खुली बहस और नियमित चुनावों वाली लोकतांत्रिक पार्टी है. कांग्रेस के विपरीत इस पार्टी में पुराने चांसलरों के बेटे और बेटियां पार्टी पर कब्जा किए नहीं दिखते और न ही सांसदों के बच्चे संसद की सीटों पर परिवार का कब्जा बनाए हुए हैं.

एसपीडी पार्टी फिर भी जनता की पार्टी होने का दर्जा खोने की हालत में पहुंच गई है, उसका जनाधार खत्म हो रहा है, पार्टी के समर्थक उसका साथ छोड़ते जा रहे हैं. इसकी एक वजह तो आर्थिक संरचना में आ रहा बड़ा परिवर्तन है. जब जर्मनी में मजदूर आंदोलन से शुरू होकर सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी बनी तो देश औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था और उसे मजदूरों के हितों को समझने और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी की जरूरत थी. एसपीडी के संगठनों ने मजदूरों को संगठित करने, उन्हें प्रशिक्षित करने और उनके लिए सुविधाएं जुटाने में अहम भूमिका अदा की है. लेकिन आधुनिक अर्थव्यवस्था में परंपरागत मजदूर रहे नहीं और नए कामगारों को एसपीडी आकर्षित नहीं कर पा रही है.

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समस्याओं से जूझती पार्टी

एसपीडी की दूसरी समस्या है जनाधार वाले नेताओं के अभाव की. इसका भी बदलती संरचनाओं से लेना देना है. पहले राष्ट्रीय स्तर के नेता लंबे अनुभवों के बाद नेतृत्व संभालते थे. अब सही राजनीतिक फैसलों के लिए विषय की जानकारी वाले नेताओं की जरूरत होती है जो आम तौर पर युवा होते हैं. उनकी पारिवारिक और सामाजिक जरूरतें राजनीति की जरूरतों से मेल नहीं खाती. कानून आधारित देशों में राजनीति में होने का मतलब गैरकानूनी ताकत या प्रभाव होना भी नहीं होता. और चूंकि तनख्वाह मिलती है तो हफ्ते में सरकार का काम और वीकएंड में पार्टी का काम. परिवार के लिए अक्सर समय ही नहीं होता. इसके अलावा राजनीति में उतनी कमाई भी नहीं होती जितनी उद्यमों में ऊंचे पदों पर होती है. और वे अक्सर राजनीति के उतार चढ़ाव छोड़ गैर सरकारी उद्यमों की नौकरी ले लेते हैं.

एसपीडी की एक और समस्या है कि पिछले सालों में चुनावों में उसके वोट कम होते गए हैं. इसकी वजह से संसदों और विधान सभाओं के उसके प्रतिनिधि कम होते गए हैं. अर्थ ये हुआ है कि पार्टी को चलाने वाले नेता कम होते गए हैं. ऊपर से हार के बाद आलोचना का दबाव बर्दाश्त न कर पाने के चलते कई नेताओं ने नैतिक कारणों से इस्तीफा दे दिया है. अब इतने लोग बचे ही नहीं जो राष्ट्रीय स्तर पर देश की सबसे पुरानी पार्टी की बागडोर संभाल सकें. ज्यादातर का राजनीतिक कद इतना बड़ा नहीं. जो लोग राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी नेतृत्व में हैं उनमें से किसी को पार्टी सदस्य अध्यक्ष के रूप में स्वीकार करेंगे, इसका भरोसा नहीं.

सदस्यों की भागीदारी

एसपीडी भी कांग्रेस की ही तरह अस्तित्व के संकट में घिरी है. एसपीडी की आंद्रेया नालेस की तरह कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी पार्टी की चुनावी हार के बाद इस्तीफा दे दिया. राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद कांग्रेस पार्टी अनिश्चय का सामना कर रही है और एक के बाद एक नेता अलग अलग कारण देकर पार्टी छोड़ रहे हैं तो एसपीडी ने सक्रिय होने और आम सदस्यों को अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया में शामिल करने का फैसला किया है. नेताओं के पास समय की कमी की समस्या से निबटने के लिए पार्टी ने दो अध्यक्षों का विकल्प चुना है जिसमें पुरुष और महिला दोनों होंगे.

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भविष्य में पार्टी नेतृत्व में लैंगिक समानता रहेगी. ग्रीन पार्टी और वामपंथी डी लिंके पार्टी में पहले से ही ऐसी व्यवस्था है. 7 जोड़ियों ने अध्यक्ष पद के लिए मैदान में उतरने का फैसला किया है, जिसका सबसे प्रमुख चेहरा वित्त मंत्री ओलाफ शॉल्स हैं. युवा उम्मीदवारों में विदेश राज्य मंत्री मिषाएल रोठ और क्रिस्टीना कंपमन की जोड़ी है. आने वाले हफ्तों में 26 पार्टी ईकाइयों में वे पार्टी सदस्यों के सामने अपनी उम्मीदवारी लेकर जा रहे हैं. इन पार्टी सम्मेलनों के पूरा होने के बाद ऑनलाइन और चिट्ठी के जरिए पार्टी के 4,20,000 सदस्य नए अध्यक्षों की जोड़ी का चुनाव करेंगे. आखिर में एक पार्टी सम्मेलन में वे विधिवत पदभार संभालेंगे.

लोकतंत्र की जिम्मेदारी संभालने वाली पार्टियों का खुद का लोकतांत्रिक होना जरूरी है. उन्हें सिर्फ लोकतांत्रिक होने का अहसास ही नहीं देना होगा, सचमुच में लोकतांत्रिक होना होगा. सत्ता में रहने वाली पार्टियों के लिए ये आसान नहीं होता क्योंकि सरकार चलाते हुए पार्टी चलाना कभी कभी मुश्किल हो जाता है और सत्तारूढ़ पार्टियां सरकार को समर्थन देने के चक्कर में चांसलर या पार्टी नेता की पार्टियों में तब्दील हो जाती है. एसपीडी ने आम पार्टी सदस्यों को पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में शामिल कर पार्टी के जनाधार को मजबूत करने का महत्वपूर्ण कदम उठाया है. उसे इसका फायदा भी मिला है.

पहले सम्मेलन में भाग लेने के लिए शुरू में सिर्फ 300 लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवाया था लेकिन अंत में उसमें करीब 700 लोगों ने हिस्सा लिया. ताजा सर्वे का कहना है कि जब से पार्टी अध्यक्ष पद के लिए कास्टिंग शुरू हुई है एसपीडी की छवि बेहतर हुई है. हालांकि सर्वे में वह अब भी तीसरे ही स्थान पर है लेकिन ग्रीन पार्टी से अंतर कम हुआ है. अध्यक्ष के चुनाव के लिए क्षेत्रीय पार्टी सम्मेलनों का नुस्खा काम आ रहा है.

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