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मानसिकता बदलना ज्यादा जरूरी

४ मार्च २०१५

"इंडियाज डॉटर" डाक्यूमेंट्री ने बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया है. इसने निर्भया कांड के गड़े मुर्दे उखाड़ते हुए ऐसे कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिनका जवाब तलाशने बिना ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाना मुश्किल है.

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तस्वीर: michaeljung/Fotolia

दिल्ली में एक चलती बस में उस युवती के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद जिस बर्बरता के साथ उसकी हत्या कर दी गई थी उसने देश में नारी सुरक्षा पर सवाल खड़े करते हुए एक जनांदोलन की शक्ल ले ली थी. अब नई डाक्यूमेंट्री के तहत उस बस के ड्राइवर मुकेश सिंह के इंटरव्यू ने भारत की पुरुष मानसिकता की कलई खोल दी है. यही वजह है कि एक बार फिर यह मुद्दा सुर्खियों में है. मुकेश का कहना है कि रात को नौ बजे के बाद सड़क पर अपने दोस्त के साथ घूमने और सिनेमा या डिस्को जाने वाली महिला कतई अच्छी नहीं हो सकती. उसका कहना है कि निर्भया ने अगर चुपचाप रेप करा लिया होता तो उसकी मौत नहीं होती.

मुकेश तो खैर ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है, इसलिए वह अपने बचाव में ऐसी ऊलजलूल दलीलें देकर खुद को नैतिक पुलिस की भूमिका में खड़ा कर सकता है. लेकिन बचाव पक्ष के उस वकील को क्या कहें जिसने कहा है कि अगर उसकी बेटी रात को अपने पुरुष मित्र के साथ बाहर निकलती तो वह उस पर तेल छिड़ कर उसे जिंदा ही जला देते. लगभग मिलते-जुलते बयान देने वाले इन दोनों लोगों की सामजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि नदी के दो छोरों की तरह भिन्न है. बावजूद इसके अगर इनकी जुबान से मिलते-जुलते शब्द निकल रहे हैं तो इसके लिए देश की वह पुरुष मानसिकता ही जिम्मेदार है जिसमें आज भी महिला को भोग्या समझा जाता है.

Indien Vergewaltigung Proteste in Delhi
निर्भया कांड के बाद प्रदर्शनतस्वीर: Murali Krishnan

बलात्कार एक सोच है

इस इक्कीसवीं सदी में जब महिलाएं लगभग हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, तब भी उनके बारे में यह नजरिया बताता है कि सदियों से नारी को अपनी मिल्कियत समझने वाले पुरुषों की मानसिकता अब भी जस की तस है. यह सही है कि तमाम पुरुषों को इस कतार में नहीं रखा जा सकता. लेकिन बहुतों की सोच तो यही है.

निर्भया कांड पर देश-विदेश में काफी बवाल होने के बाद तब की केंद्र सरकार ने मजबूरन एक कानून बनाया था ताकि ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सके. लेकिन इन हुक्मरानों को इस बात की ओर सोचने की शायद फुर्सत नहीं है कि सामाजिक जागरूकता के बिना कोई भी कानून बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों पर अंकुश नहीं लगा सकता.

बलात्कार और दूसरे अपराधों में बुनियादी फर्क है. ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हमारे पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता में बदलाव के लिए कदम उठाने जरूरी है. लेकिन इस मामले में कानून बेबस है. यही वजह है कि सरकार ने तब जो कानून बनाया था वह भी दंतविहीन बन कर सरकारी दस्तावेजों तक सिमट कर रह गया है. यही वजह है कि निर्भया कांड के बाद इतने शोर-शराबे और नए कानून बनने के बावजूद पूरे देश में बलात्कार की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं. रोजाना ऐसी घटनाएं अखबारों के किसी न किसी कोने में नजर आ जाती हैं.

Symbolbild Protest gegen Vergewaltigungen in Indien
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Saurabh Das

अमूमन ऐसी घटनाओं के बाद सरकारें व सत्तारुढ़ राजनीतिक पार्टी इन पर पर्दा डालने में जुट जाती हैं और विपक्ष और दूसरे सामाजिक संगठन धरने और प्रदर्शनों में. लेकिन घटना के मूल कारण की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता.

सामाजिक चेतना की जरूरत

पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ठीक ही कहती हैं कि बस ड्राइवर के बयान ने एक बार फिर उस पुरुष मानसिकता को उजागर कर दिया है जिसके तहत वह नारी को अपनी जैविक संपत्ति समझता है. उनकी दलील है कि किसी अपराध का पता लगाने और दोषियों को सजा देने से पहले बचाव जरूरी है. लेकिन जब तक अपराध की मूल वजहों का पता नहीं चलता, तब तक उससे बचाव कैसे किया जा सकता है? बेदी का आकलन सही है. जब तक पुरुष मानसिकता को बदलने की दिशा में ठोस पहल नहीं होती तब तक न जाने कितनी ही निर्भयाएं समाज के मुंह पर लगातार करारा तमाचा जड़ती रहेंगी. लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या नीति निर्धारकों के कानों तक कभी इन तमाचों की गूंज पहुंचेगी ?

ब्लॉग: प्रभाकर, कोलकाता