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ऐतिहासिक मानव विस्थापन की फिल्म

Bhatia Isha Kommentarbild App
ईशा भाटिया सानन
१३ सितम्बर २०१५

कोई देश आठ लाख शरणार्थियों को लेने की बात करता है, कोई दस, तो कोई बारह. ये जो आंकड़े बन कर रह गए हैं, ये शरणार्थी भी तो असल में 'लोग' ही हैं, आपके और हमारे जैसे, कहना है ईशा भाटिया का.

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Flüchtlinge Ungarn
तस्वीर: Reuters/M. Djurica

शाम को दफ्तर से घर पहुंच कर टीवी ऑन किया, तो कुछ ऐसे सीन चल रहे थे.. लोग इधर उधर भाग रहे हैं, माओं ने बच्चों का हाथ थामा हुआ है, तो पुरुषों ने जितना हो सके हाथ में सामान पकड़ा हुआ है. कोई हॉलीवुड फिल्म होगी, यह सोच कर मैंने चैनल बदल दिया. कमाल की बात है, दूसरे चैनल पर भी ऐसी ही कोई फिल्म चल रही थी. पिछली वाली में लोग मैदानों में भाग रहे थे, यहां समुद्र में किसी जहाज पर सवार होने के लिए अफरा तफरी मची है.

Manthan in Lindau
ईशा भाटियातस्वीर: DW

ये हॉलीवुड वाले भी.. हर बार वही कहानी! एलियन का हमला हुआ, दुनिया तबाह होने लगी, लोगों को किसी जहाज पर सवार कर किसी दूसरे सुरक्षित प्लैनेट पर पहुंचाने का काम सेना के जिम्मे. पर ये क्या, ये फिल्में न्यूज चैनलों पर क्यों चल रही हैं? थोड़ा गौर करने पर समझ आया कि ये फिल्म नहीं, सीरिया से भाग रहे लोगों की असल तस्वीरें हैं. एलियन का नहीं, अपने ही लोगों का हमला हुआ है. पर यूरोप तक पहुंचना भी किसी दूसरे प्लैनेट तक पहुंचने से कम मुश्किल नहीं है.

आज कल न्यूज में यही देखने को मिलता है. इसके बाद घरों और दफ्तरों में इस पर खूब चर्चा भी होती है. बहुत से सवाल उठते हैं, बहुत से सुझाव भी आते हैं. मसलन जर्मनी को क्या जरूरत है आठ लाख लोगों को लेने की? इन्हें कहीं दूर किसी द्वीप पर नहीं छोड़ा जा सकता? ये मुसलमान हैं, आतंकवादी निकले तो?

इन सवालों के जवाब इतने आसान नहीं है. आंकड़े ले कर बैठेंगे, तो यह बात समझ में आएगी. कम से कम 40 लाख लोग सीरिया छोड़ कर भटक रहे हैं. यानि लगभग बैंगलोर की आबादी जितने लोग. अब जरा सोचिए कि अगर कोई ऐसा संकट आए कि बैंगलोर की पूरी आबादी को विस्थापित होना पड़े, तो सरकार क्या करेगी? उनके लिए एक नया शहर बसाएगी? या फिर सभी राज्यों से कहेगी कि इन्हें आपस में बांट लो? लोगों को जीने के लिए सिर्फ जगह की नहीं, मूलभूत ढांचे की भी जरूरत होती है. यूरोप में इन दिनों इसी बंटवारे पर बहस हो रही है.

अब, यह सवाल कि जर्मनी ही क्यों. तो सबसे पहली बात तो यह कि यह एक अवधारणा है कि जर्मनी सबसे ज्यादा मदद कर रहा है. जर्मनी में अब तक एक लाख ही शरणार्थी पहुंचे हैं. इसकी तुलना तुर्की से कीजिए, जहां 18 लाख सीरियाई मौजूद हैं. और छोटा सा लेबनान. वहां तो हर चार में से एक व्यक्ति सीरिया का है. इसलिए जर्मनी को जरूरत से ज्यादा श्रेय देना सही नहीं है.

हां, यह जरूर है कि यूरोप में जर्मनी सबसे बड़े दिल वाला साबित हो रहा है. और इसे समझने के लिए इतिहास के पन्नों को खोलना होगा. दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के बाद पूर्वी यूरोप के देशों ने जर्मन मूल के लोगों को निकाल बाहर किया. हिटलर ने गैर जर्मनों के साथ जो ज्यादतियां की थीं, उनका खामियाजा इन लोगों को चुकाना पड़ा. उस समय एक करोड़ से भी अधिक जर्मन मूल के लोग विस्थापित हुए. अगर इन्हें दूसरे देशों में जगह नहीं मिलती तो ये क्या करते? इस लिहाज से शरणार्थियों को स्वीकारना आज जर्मनी की नैतिक जिम्मेदारी बन गयी है.

यह भी सही है कि इससे यूरोप की संरचना बदलेगी. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं होने जा रहा है. यूरोप हमेशा से वैसा नहीं था जैसा आज है. कई बार नक्शे बदले, कई बार नाम भी बदले. तो इस बार बदलाव से डर क्यों? आज हमारी आंखों के सामने इतिहास रच रहा है. और आने वाली पीढ़ियों को हम इसकी मिसाल देंगे.

ब्लॉग: ईशा भाटिया