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कुनबे की राजनीति से घिरा भारत का लोकतंत्र

शिवप्रसाद जोशी१६ सितम्बर २०१६

भारत यूं तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यहां लोगों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की सरकार बनती है लेकिन सत्ता की राजनीति पर कुछ घरानों का वर्चस्व है. वामपंथी दलों को छोड़कर शायद ही कोई दल वंशवाद से अछूता है.

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Pranab Mukherjee Akhilesh Yadav Mulayam Yadav
तस्वीर: DW

कुनबे की राजनीति को लोगों ने सहजता से लेना भी शुरू कर दिया है. मानो वे इसके अभ्यस्त हो चले हैं. फिर भी उत्तर प्रदेश के ताजा घटनाक्रम की वजह से ये बहस उठी है कि आखिर लोकतंत्र में कुनबावाद कब तक हावी रहेगा और इससे कभी निजात मिलेगी भी या नहीं. क्या भारतीय लोकतंत्र जमीनी संघर्षों, सामाजिक सरोकारों और नेतृत्व कौशल को परखने के बजाय परिवार केंद्रित मोहवादी राजनीति का शिकार हो जाएगा?

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में परिवारवाद इस तरह हावी है कि इन दिनों मचे घमासान को देखकर ऐसा लग रहा है मानो किसी औद्योगिक घराने में संपत्ति को लेकर झगड़ा चल रहा हो. यूपी की समाजवादी पार्टी, बिहार के राष्ट्रीय जनता दल और तमिलनाडु की डीएमके में परिवारिक सदस्यों के बीच बंटे राजनैतिक साम्राज्य का किस्सा तो कुछ ज्यादा ही फैला हुआ और विवादास्पद है. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के परिवार के 20 लोग राजनीति में बताए जाते हैं जिनमें उनका बेटा अखिलेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री, बहु डिंपल लोकसभा सांसद, भाई शिवपाल मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष और चचेरा भाई और भतीजे सांसद हैं. 1992 में गठित समाजवादी पार्टी में परिवार की लड़ाई अब चौराहे पर आ गई है और मुलायम सिंह के सामने धर्मसंकट इस बात का है कि वो भाई को चुनें या बेटे को. हालत ये है कि मुलायम सिंह यादव ने जो पार्टी खड़ी की थी और जिसके दम पर वो केंद्र की सरकारों तक में दबदबा रखते आए थे, अब उस पर दोफाड़ हो जाने के बादल मंडराने लगे हैं.

यूपी और बिहार की ही बात नहीं है, पंजाब, कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, ओडीशा, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना- गिनेचुने राज्य ही होंगे जहां हमें वंशानुगत राजनीति के कोई उदाहरण नहीं मिलते. जैसे त्रिपुरा, बंगाल, केरल या दिल्ली और कुछ पूर्वोत्तर के राज्य. गांधी परिवार के अलावा यूपी में यादव परिवार, बिहार में लालू परिवार, पंजाब में बादल, महाराष्ट्र में ठाकरे और पवार, ओडीशा में पटनायक और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति में वंशवाद के सबसे बड़े खिलाड़ी परिवार बने हुए हैं. भारत की संसद पर नजर डालें. ऐसा लगता है कि वो रिश्तेदारों से भरी पड़ी है. क्षेत्रीय क्षत्रपों में भी वंश का बोलबाला है. कम से कम ऐसे 15 राजनैतिक दल हैं जो राज्य स्तर पर ताकत रखते हैं. देश की 28 फीसदी राज्य सरकारें किसी न किसी राजनैतिक कुनबे के हाथो में ही हैं.

आंध्र में एनटी रामाराव की राजनैतिक विरासत को लेकर हुए झगड़े को भला कौन भूलेगा. तेलंगाना के सीएम चंद्रशेखर राव की बेटी सांसद हैं. मध्यप्रदेश का सिंधिया परिवार बीजेपी और कांग्रेस में बंटा हुआ है और पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीति में उतरा हुआ है. बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार हों या चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी हो या एक दौर में हरियाणा के मशहूर लाल. देवीलाल, भजनलाल या बंसीलाल. बिहार में लालू यादव हों या रामविलास पासवान अपनी अगली पीढ़ी तैयार करने में इन नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी. लालू ने तो इस मामले में सबको पीछे छोड़ते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था जिन्होंने लगातार 15 साल शासन किया.

अचरज होता है कि इस देश में सबसे बड़े लोकतंत्र का कितना जोरशोर से ढोल बजाया जाता है, चुनाव होते हैं तो लोकतंत्र के महान उत्सव के जैकारे लगने लगते हैं लेकिन बारीकी से देखने पर आप पाते हैं कि ये तो एक तरह से राजे रजवाड़ों की ही कोई प्रतियोगिता सरीखी हो रही है. चुनाव जीतते हैं तो राजतिलक सरीखा हो जाता है. हारते हैं तो हाथ जोड़कर निकल जाते है. इन्हीं रुझानों और प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हुए ब्रिटिश लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ़्रेंच ने अपनी 2011 में आई मशहूर किताब इंडियाः अ पोट्रेट में लिखा था कि वो दिन दूर नहीं जब भारत में एक तरह से राजशाही जैसी कायम हो जाएगी. ऐसा समय जहां पीढ़ीगत व्यवस्था के तहत कोई शासक गद्दी पर होगा. उन्होंने तो ये आशंका भी जाहिर कर दी थी कि भारतीय संसद कुनबों का सदन हो जाएगा.

राजनीति में परिवारों के वर्चस्व का मुद्दा दक्षिण एशिया के लिए नया नहीं है. यहां गांधी, भुट्टो और हसीना परिवारों की पीढ़ियों ने एक समय तक एकछत्र राज किया है. वंशवाद की ये कहानी जारी है. हाल में हुए कुछ अध्ययनों के मुताबिक 2009 में 29 फीसदी सांसद कुनबे की राजनीति से आए थे. राष्ट्रीय दलों मे वंशवाद के मामले में कांग्रेस पहले नंबर पर रही है. उसके 37 फीसदी वंशानुगत सांसद थे. 2014 की संसद में वंशानुगत राजनीति के प्रतिनिधियों की संख्या में कमी देखी गई. इस बार ऐसे सांसदों की संख्या है 21 फीसदी. द हिंदू अखबार के एक अन्य सर्वे के मुताबिक करीब एक चौथाई यानी 130 सांसदों का संबंध वंशानुगत राजनीति से है. 2009 में मनमोहिन सिंह मंत्रिमंडल में 36 फीसदी मंत्री वंशवादी राजनीति से आए थे तो 2014 में ये संख्या घट कर 24 फीसदी रह गई. बीजेपी के 15 फीसदी सांसद कुनबे की राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं. एक आंकड़े के मुताबिक संसद में इस समय 36 राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि मौजूद हैं. इनमें से 13 राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि दरअसल परिवार के सदस्य ही हैं. बीजेपी में केंद्रीय सत्ता पर वंशानुगत राजनीति से आया कोई प्रतिनिधि शीर्ष पद पर नहीं बैठा. कांग्रेस में राजीव गांधी तक ऐसा हो चुका है. लेकिन पार्टी के भीतर उनकी पत्नी और पुत्र का बोलबाला है. बीजेपी में कुनबापरस्ती कम नहीं लेकिन सत्ता के शीर्ष पर एक ही कुनबे से पीढ़ी दर पीढ़ी किसी को गद्दी नहीं मिली. वैसे इस मामले में वामपंथी दलों का रिकॉर्ड सबसे साफ है. वहां किसी का परिजन या रिश्तेदार सत्ता राजनीति में नहीं पहुंच पाया.

वंशानुगत राजनीति के प्रतिनिधियों को चुनने में मतदाताओं के रवैये को लेकर भी अध्ययन हुए हैं. जिनके मुताबिक ये पाया गया है कि युवा मतदाता हों या अधेड़ या बुज़ुर्ग, उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वो किसी राजनैतिक दल को वोट दे रहे हैं या कुनबे को या किसी व्यक्ति की राजनैतिक क्षमता को तौलकर. वे जैसे परिपाटी को ही निभाते जाते हैं. लेकिन लोकतंत्र के मुकम्मल विकास के लिए ये रवैया घातक हो सकता है. आगे चलकर ये उस अंदेशे को भी सच्चाई में बदल सकता है कि कहीं हो न हो इस देश में फिर राजा प्रजा का वही पुराना सामंती दौर न आ जाए. हालांकि वर्चस्व और दबंगई के जो नजारे नेताओं के अपने विधानसभा या संसदीय या प्रभाव वाले क्षेत्रों में अक्सर दिखते हैं और जिस तरह साधारण लोग उन्हें सर झुकाकर सलाम करते या पांव छूते देखे गए हैं, ये सब दृश्य यही बताते हैं कि भविष्य का अंदेशा तो टुकड़ों टुकड़ों में आज साक्षात है ही.