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समाज

कैसे सुधरेगा मानसिक स्वास्थ्य

शिवप्रसाद जोशी
११ अप्रैल २०१७

मानसिक स्वास्थ्य बिल 2016 में मनोरोगों की चिंता तो नजर आती है लेकिन इसके कारणों से निपटने का रास्ता नहीं निकलता दिखता. अपने ब्लॉग में नये बिल पर ऐसी टिप्पणी है, शिवप्रसाद जोशी की.

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Indien Varanasi Psychiatrische Klinik
तस्वीर: The Week/Gunjan Sharma

मानसिक स्वास्थ्य बिल 2016 पिछले दिनों लोकसभा से भी पास हो गया. मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी की चिंता तो इसमें नजर आती है लेकिन कारणों से निपटने का रास्ता नहीं निकलता दिखता. जबकि भारत में मनोरोग एक बड़ी बीमारी के रूप में उभर रहा है और करीब साढ़े नौ करोड़ लोग इसकी चपेट में बताये जाते हैं.

सरकार और संसद का ये उपयोगी और सार्थक कदम माना जाएगा. बिल में ये रेखांकित किया गया है कि मनोरोग को लेकर समाज में भ्रांतियां और रूढ़ियां हैं. मानसिक स्वास्थ्य को सीधे तौर पर दिमागी गड़बड़ी से जोड़ दिया जाता है जबकि मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति को ठीक उसी तरह इलाज, दवा और देखभाल की जरूरत है जैसे किसी शारीरिक बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को. कुल मिलाकर यह बिल अपनी भावना, उद्देश्य और उपचार विधियों में बदलाव को लेकर बेशक सही है लेकिन इसका ध्यान उपायों पर ज्यादा और कारणों की शिनाख्त और उनके निदान पर कम ही है.

बिल में एक महत्त्वपूर्ण बात ये भी है कि आत्महत्या की कोशिश को अब मुकदमे के दायरे से बाहर रखा गया है. इसे अपराध नहीं, एक बीमारी माना गया है. आत्महत्या की घटनाओं के मामले में भारत, पूरी दुनिया में 12वें नंबर पर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में साढ़े सात प्रतिशत यानी करीब साढ़े नौ करोड़ लोग विभिन्न किस्म की हल्की या गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड साइंसेस यानी निमहान्स के एक सर्वे के मुताबिक भारत में हर 20 में से एक व्यक्ति अवसाद का शिकार है. डब्लूएचओ के मुताबिक पूरी दुनिया में 2005 से 2015 के बीच अवसाद में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. एक अध्ययन में पाया गया कि व्यग्रता, बेचैनी और अवसाद जैसे साधारण मनोरोग दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे हैं. 1990 में ऐसे रोगियों की संख्या साढ़े 41 करोड़ थी, तो 2013 में ये बढ़कर साढ़े 61 करोड़ हो गई.

बेशुमार शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति से ठसाठस भरे आज के दौर में बुनियादी जीवन मूल्यों की गिरावट किसी से छिपी नहीं है. विशाल आबादी वाले भारत में मध्यमवर्गीय समाज का दायरा बढ़ रहा है, उसकी लाइफस्टाइल, चाहतें, जरूरतें भी बदल रही हैं. आर्थिक लिहाज से देश तरक्की करता दिखता है खासकर जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय के मामले में ऊंची दरें बताती हैं कि लोगों की क्रय शक्ति और साथ ही उपभोग शक्ति भी बढ़ी है. दमित इच्छाओं ने सुविधापरस्त आबादी की भूख बढ़ा दी है. इस जीवनशैली में विचारों की आधुनिकता कम, उपभोग की आधुनिकता ज्यादा नजर आती है. परंपरा भी जैसे धर्म और रिवाजी गतिविधियों को चलाए रखने की चक्की बन गयी है. परिवार बिखर रहे हैं. तलाक की दर बढ़ रही हैं. छंटनी और बेरोजगारी की तलवारें अब सर पर नहीं लटक रहीं, वे गर्दनों पर रखी हैं. अकेलापन और एकल जीवन ने मुक्ति के पांव में ही बेड़ियां डाल दी हैं. इन्हीं सांस्कृतिक विचलनों और दुर्दशाओं ने और शहरी जीवन की आपाधापियों ने भी सुविधासंपन्न समाज को रोगग्रस्त किया है.

मानसिक स्वास्थ्य बिल इन विसंगतियों पर नहीं जाता, न ही वो उस आर्थिक विकास के मॉडल की विसंगतियों पर इशारा करता है जिसे लागू कर सरकारें निवेश और मुनाफे और मुक्त बाजार की एक खुली स्वच्छंद विकास परियोजना को लागू करने पर आमादा हैं. दूसरी ओर इसी विशाल उपभोक्ता आबादी के किनारे, उससे भी बड़ी एक ऐसी आबादी रहती है जो अपनी गुजर बसर के लिए संघर्ष कर रही है, जो आर्थिकी के आंकड़ों की भव्यता की ओट में ही रहती आयी है. सबसे ताजा उदाहरण के तौर पर आप तमिलनाडु के उन किसानों की तस्वीरों और दृश्यों को याद कर सकते हैं जो भूखे नंगे होकर और मानव खोपड़ियों के साथ दिल्ली की सड़कों पर उतरे थे. आक्रोश जाहिर करते हुए उनके नग्न होकर दौड़ने के भी विचलित करने वाले दृश्य आए. इन भूख और कर्ज में घिरे किसानों के मानसिक संताप और बेचैनियों का क्या इलाज होगा. क्या किसी स्वास्थ्य कानून में इनकी मानसिक दशा के उपचार का तरीका होगा? गरीबों की ये सूची बहुत लंबी और भारी है. किसानों की आत्महत्या के मामले इस देश में थम नहीं रहे हैं.

एक ओर आईपीएल जैसे खेलों की चमक और ग्लैमर है तो दूसरी ओर किसानों, छात्रों की आत्महत्याएं, स्त्रियों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की वारदातें हैं. आज हालत ये है कि धर्म और जाति के नाम पर संगठित हिंसा ने लोगों का जीवन दूभर कर दिया है. गरीबी से टूटे हुए लोग, हिंसा, लूट और दमन से लगभग ध्वस्त किए जा रहे हैं. उनकी व्यग्रताओं, चिंताओं और मुश्किलों का समाधान अव्वल तो राजनैतिक तौर पर होना चाहिए था, वहां कोई सुनवाई नहीं होगी तो इस तरह के मानसिक स्वास्थ्य बिल क्या कर पाएंगें. ये तो अस्पतालों में मनोरोगियों की संख्या ही बढ़ाएंगें. समाज की किसी भी संस्था या संस्थान में आप पाएंगें कि एक व्यग्र और विचलित घेरा बढ़ता ही जा रहा है फिर वो चाहे स्कूल हो या कोई दफ्तर या कोई अस्पताल या जेल, वो कोई छात्र हो या कर्मचारी या मरीज का कोई कैदी.

जानकार भी मानते हैं कि मनोरोगों का सीधा संबंध किसी देश की गरीबी और असमानता से भी है. लिहाजा ये सिर्फ जनस्वास्थ्य की बात नहीं है ये विकास का भी एक बड़ा मुद्दा है. सबको शिक्षा सबको स्वास्थ्य नागरिक अधिकार है, और शासन का बुनियादी कर्तव्य भी. सबको शांति, सबको न्याय और सबको प्यार भी इसमें जोड़ना चाहिए तभी देश वास्तविक तौर पर एक स्थिर और स्वस्थ लोकतंत्र बना रह पाएगा.