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क्या इस बार तय हो पाएगा महिला आरक्षण

मारिया जॉन सांचेज
७ दिसम्बर २०१८

भारत में संसद और विधान सभाओं में महिला आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर गर्म हो रहा है. कुलदीप कुमार का कहना है कि राजनीतिक दलों को आपसी बातचीत से महिलाओं के न्यायोचित प्रतिनिधित्व का सर्वसम्मत फॉर्मूला तय करना होगा.

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Indien - Parlament in Neu Dehli
तस्वीर: picture-alliance/dpa

अगले साल लोकसभा चुनाव के साथ-साथ ओड़िशा विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि राज्य के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक को ना सिर्फ़ महिला आरक्षण की याद आ गई है बल्कि इससे संबंधित विधेयक को संसद में पारित कराने के लिए उन्होंने असाधारण सक्रियता दिखाना भी शुरू कर दिया है. अपने राज्य में तो वे सभी सात राष्ट्रीय दलों और पंद्रह क्षेत्रीय दलों के नेताओं के साथ इस मुद्दे पर बैठक कर ही रहे हैं, उन्होंने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को भी पत्र लिखकर उनसे महिलाओं को लोकसभा और सभी विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के मामले पर सहयोग करने का अनुरोध किया है.

महिला आरक्षण का मुद्दा भी काफी कुछ धर्मनिरपेक्षता या जातिवादविरोध जैसा है. सभी दल इसके पक्ष में हैं लेकिन केवल इक्का-दुक्का दलों को छोड़कर दिल से कोई इसे हकीकत में बदलता हुआ नहीं देखना चाहता. इससे संबंधित विधेयक का मसौदा 1996 में ही  तैयार कर लिया गया था. इसके बाद इसे चार बार संसद में पेश किया गया लेकिन कुछ पार्टियों के जबरदस्त विरोध के कारण इसे पारित नहीं कराया जा सका. अंततः 2008 में उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, जिसे वामपंथी दलों का भी समर्थन प्राप्त था, इसे केवल राज्यसभा में ही पारित करा सका. लोकसभा की अवधि समाप्त हो जाने के बाद यह विधेयक भी एक बार फिर ठंडे बस्ते में पहुंच गया. अब वर्तमान लोकसभा अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में है, और अब जाकर नवीन पटनायक को महिला आरक्षण की याद आई है. इसलिए यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या पटनायक इस विधेयक को पारित कराने के प्रति वाकई गंभीर हैं या यह चुनाव के पहले महिला मतदातों को रिझाने का एक लोकलुभावन प्रयास भर है? पिछले इतने वर्षों में वे इस गंभीर मसले पर चुप्पी क्यों साधे रहे?

Aktivisten der All India Democrativ Women´s Association (AIDWA)
तस्वीर: UNI

दिलचस्प बात यह है कि इस विधेयक का सबसे अधिक विरोध वे ही पार्टियां करती आ रही हैं जो सामाजिक न्याय की बात करती हैं. दरअसल इनका सामाजिक न्याय पूरी तरह से जाति-आधारित आरक्षण पर टिका है और परिवार, जाति एवं समाज में गैर-बराबरी और लिंगभेद को बनाए रखने वाली पितृसत्तात्मक मूल्यव्यवस्था से इसका कोई विरोध नहीं है. इसलिए राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी पार्टियां इस विधेयक का लगातार विरोध करती आई हैं क्योंकि उनका कहना है कि इस विधेयक के कारण अभी तक चली आ रही आरक्षण व्यवस्था कमजोर पड़ जाएगी.

विधेयक में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए तो 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों के लिए नहीं है. इनके पुरुष नेताओं को लगता है कि उनकी संसद और विधानसभाओं में संख्या घट जाएगी इसलिए महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए. विधेयक की एक और बात से काफ़ी दलों का विरोध है और वह यह कि आरक्षित सीट को अगले चुनाव में अनारक्षित कर दिया जाएगा. आपत्ति यह है कि जब चुनी हुई महिला सांसद को पता है कि अगली बार उसे यहां से खड़ा नहीं होना है तो फिर वह अपने चुनाव क्षेत्र के विकास में दिलचस्पी क्यों लेगी?

सवाल यह है कि इस समय संसद में महिलाओं की उपस्थिति केवल ग्यारह प्रतिशत के करीब है. यदि राजनीतिक दलों को विधेयक का वर्तमान स्वरूप पसंद नहीं है तो वे उसका विकल्प तैयार करने की कोशिश करें. लेकिन पिछले बाईस वर्षों में उन्होंने ऐसा न करके केवल महिला आरक्षण विधेयक का विरोध ही किया है. यदि नवीन पटनायक वाकई इस मसले के प्रति गंभीर हैं, तो उन्हें सभी दलों के नेताओं के साथ गहन विचार-विमर्श करके विधेयक का सर्वसम्मत मसौदा तैयार कराने की कोशिश करनी चाहिए. वर्तमान लोकसभा में यह विधेयक पारित हो पाएगा, इसमें भारी संदेह है. लेकिन यदि भविष्य के लिए को रास्ता निकल सके, तो यह भी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.

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