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क्या पैसे से खुशी भी मिलती है?

२९ जून २०१३

पैसा सब खरीद सकता है, लेकिन खुशियां नहीं, यह बात तो सब जानते हैं. पर साथ ही यह भी सच है कि हमारी आर्थिक स्थिति को ही खुशहाली का पैमाना भी माना जाता है.

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तस्वीर: Photo-K/Fotolia

स्विट्जरलैंड के अर्थशास्त्री ब्रूनो फ्रे कई सालों से इस सवाल का जवाब ढूंढने में लगे हैं. ब्रिटेन की वॉरविक यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले फ्रे दुनिया के उन चुनिंदा लोगों में से एक हैं जो अर्थव्यवस्था के लोगों की खुशहाली पर असर को समझने की कोशिश कर रहे हैं. डॉयचे वेले के साथ बातचीत में फ्रे ने कहा कि इस बात में कोई संदेह नहीं कि जो व्यक्ति ज्यादा पैसे कमाता है वह खुश भी ज्यादा रहता है, "जब हम गरीब देशों की तुलना उन देशों से करते हैं जहां लोगों की औसतन तनख्वाह ज्यादा है, तो यह बात साफ हो जाती है कि अमीर देशों में लोग ज्यादा खुश हैं". (खुशहाली की हैट्रिक)

लेकिन फ्रे उस खुशी की बात कर रहे हैं, जिसे नापा जा सकता है. अपने शोध में फ्रे ने लोगों से खुशहाली से जुड़े कुछ सवाल पूछे और उन्हें एक से दस के बीच अंक देने को कहा. इसमें दिक्कत यह रही कि हर व्यक्ति अपनी खुशहाली को अलग तरह से देखता है. मिसाल के तौर पर अगर किसी गरीब से कहा जाए कि तुम्हारी तनख्वा दोगुनी की जा रही है, तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता, लेकिन अगर ऐसा ही कुछ किसी रईस के साथ हो, जिसके पास पहले से ही जीवन के सब संसाधन हैं तो उसकी खुशी इतनी बड़ी नहीं होगी.

भारत और चीन से तुलना नहीं
जर्मन इंस्टिट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च के ग्रेग वागनर मानते हैं कि सिर्फ पैसा ही सब कुछ नहीं होता, बल्कि हमारी सामाजिक स्थिति भी खुशहाली में एक बड़ी भूमिका निभाती है. परिवार और दोस्तों का साथ हमें खुश रखता है और सबसे बढ़ कर हमारी सेहत. फ्रे कहते हैं कि वह भारत और चीन की तुलना जर्मनी से नहीं कर सकते. उनके अनुसार जर्मनी में लोग आर्थिक तौर पर संतुष्ट हैं, "दूसरी चीजें ज्यादा मायने रखती हैं. हमारी रिसर्च में देखा गया है कि कम बेरोजगारी दर, एक अच्छी स्वास्थ्य प्रणाली, लोकतंत्र और आजादी लोगों के लिए आर्थिक विकास के तुलना में ज्यादा अहम हैं".

उनका कहना है कि अगर बाकी की चीजों पर ध्यान दिया जाए तो आर्थिक विकास खुद ब खुद ही होने लगेगा, "आप बेरोजगारी की समस्या से भी निपट सकते हैं. लोगों के काम करने के घंटे कम कर दीजिए. अगर उन्हें अच्छी आय मिलती रहे, तो लोग कम काम करने से तो नहीं कतराएंगे", और जो बेरोजगार हैं उन्हें काम मिल सकेगा. इसके लिए जरूरी है कि देश की आर्थिक स्थिति अच्छी हो. ग्रेग उसका भी समाधान बताते हैं, "खर्च कम कर और टैक्स बढ़ा कर कर्जे से बचा जा सकता है".

लोकतंत्र, आजादी और बेरोजगारी

ब्रूनो फ्रे कहते हैं कि आर्थिक और सामाजिक स्थिति के साथ खुशहाली राजनीतिक स्थिति पर भी निर्भर करती है, "लोकतंत्र में रहने वाले लोग तानाशाही में रहने वालों की तुलना में ज्यादा खुश हैं". सबसे खुश तो वे हैं जो राजनीतिक फैसलों से सहमत हैं और जिन्हें इस बात की तसल्ली है कि वह खुद इस प्रक्रिया का हिस्सा हैं. फ्रे बताते हैं कि यूरोपीय संघ में लोकतंत्र की कमी है और लोगों को देश की राजनीतिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं है, "ईयू को अहम मसलों पर जनमत संग्रह के बारे में सोचना होगा, ताकि लोग खुद को फैसलों से जुड़ा हुआ समझ सकें".

इसके अलावा बेरोजगारी लोगों की मायूसी का बड़ा कारण बनी हुई है. ईयू में कम से कम दो करोड़ लोग बेरोजगार हैं. ये सरकारी आंकड़े हैं. फ़्रे कहते हैं कि किसी भी इंसान के भी साथ जब कुछ बुरा होता है, तो वह कुछ वक्त के लिए मायूस हो जाता है, लेकिन वह हमेशा के लिए दुखी नहीं रहता, बल्कि कुछ समय बाद चीजें फिर से सामान्य हो जाती हैं. पर बेरोजगारी के साथ ऐसा नहीं है. जब किसी की नौकरी जाती है तो वह हताश हो जाता है, खास तौर से पुरुष, "महिलाओं पर इसका इतना बुरा असर नहीं पड़ता. नौकरी चली जाने पर वे अपने परिवार की ओर अपना ध्यान केंद्रित कर लेती हैं और इसलिए जल्द ही बेहतर महसूस करने लगती हैं".

रिपोर्ट: आन्द्रेआस बैकर/ आईबी

संपादन:आभा मोंढे

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