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क्या मुसहर लोगों को चूहे का स्वाद बहुत भाता है?

७ दिसम्बर २०१७

फेकन मांझी बांह पर रेंगते चूहे का सिर जमीन पर पटक कर मारने की कोशिश में हैं. उनके अगल बगल खड़े पड़ोसी 60 साल के मांझी की हरकत को देख कर खुशी से ताली बजाते हैं. मुसहर लोगों के लिए एक वक्त का भोजन तैयार हो रहा है.

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Indien Rattenfresser
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Hussain

फेकन मांझी बांह पर रेंगते चूहे को जमीन पर उसका सिर पटक कर मारने की कोशिश में हैं. उनके चारों ओर खड़े उनके पड़ोसी 60 साल के मांझी की हरकत को देख कर खुशी से ताली बजाते हैं. मुसहर समुदाय के इन लोगों के लिए एक वक्त का भोजन तैयार है.

उंगलियों के नाखून से चूहे की चमड़ी उधेड़ते फेकन बताते हैं कि इस चूहे को पकाने में उन्हें 15 मिनट लगेंगे. फेकन ने यह भी कहा, "यहां के सभी लोग इसे पसंद करते हैं और इसे पकाना जानते हैं."

Indien Rattenfresser
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Hussain

फेकन 25 लाख लोगों के मुसहर समुदाय का हिस्सा हैं. यह भारत के सबसे गरीब समुदायों में से एक है जो आजादी के 70 साल बाद भी हाशिये पर है. यहां तक कि दलित समुदाय के लोग भी इन्हें अपने से नीचे मानते हैं. बिहार में मुसहरों की एक बड़ी आबादी रहती है और इनमें से ज्यादातर दिन में 70 रुपये से भी कम की आमदनी पर जिंदा हैं. तीन दशकों से मुसहर लोगों के बीच काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता सुधा वर्गीज कहती हैं, "ये गरीबों में भी सबसे ज्यादा गरीब लोग हैं और किसी सरकारी योजना के इन तक पहुंचने की कहानी दुर्लभ है." वर्गीज ने बताया, "इन्हें हर दिन अगले भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ता है, इसके अलावा कुष्ठ जैसी बीमारियां यहां रोजमर्रा की सच्चाई है."

गोनपुरा के आलमपुर गांव में फेकन के पड़ोसी राकेश मांझी बताते हैं, "दिन भर हम बैठे रहते हैं, हमारे पास कुछ करने को नहीं है. कभी कभी हमें खेतों में काम मिल जाता, अगले दिन फिर भूखे रहते हैं या फिर चूहे पकड़ते हैं और उसे थोड़ा बहुत जो अनाज है उसके साथ खाते हैं."

Indien Rattenfresser
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Hussain

चूहे को आग में भून कर फेकन उसे कटोरे में रखकर उसमें नमक और सरसों का तेल मिलाते हुए कहते हैं, "सरकारें बदलती हैं लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं बदला. हम अब भी अपने पूर्वजों की तरह ही खाते, जीते और सोते हैं." फेकन के इर्दगिर्द मौजूद बच्चे और दूसरे लोग के खाना शुरू करने के कुछ ही मिनटों में भोजन खत्म हो जाता है.

2014 में बिहार के मुख्यमंत्री बने जीतन राम मांझी इसी समुदाय के हैं. उनके रूप में देश को पहली बार किसी मुसहर जाति का मुख्यमंत्री मिला. वह 9 महीने तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे. समाचार एजेंसी एएफपी से मांझी ने कहा, "सिर्फ शिक्षा ही हमारी जिंदगी और भविष्य बदल सकती है. मेरा समुदाय इतना पिछड़ा है कि सरकारी आंकड़ों में भी यह दर्ज नहीं कि उनकी संख्या कितनी है. जबकि बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि पूरे देश में इस समुदाय के 80 लाख लोग हैं."

पूर्व मुख्यमंत्री बचपन में एक बड़े जमींदार के मवेशी चराया करते थे. उनके मां बाप उसी जमींदार के यहां मजदूरी करते थे. मांझी कहते हैं, "वे बिल्कुल बंधुआ मजदूर की तरह थे जिन्हें हर रोज काम के बदले एक किलो अनाज मिलता था. आज भी बहुतों के लिए यह स्थिति ज्यादा नहीं बदली है." इन लोगों की भलाई के लिए कुछ अच्छे कार्यक्रम चल रहे हैं लेकिन यह सभी निजी कोशिशें हैं. राजधानी पटना के बाहरी इलाके में मौजूद शोषित समाधान केंद्र मुसहर बच्चों के लिए आवासीय स्कूल चलाता है. इसे शुरू करने वाले जेके सिन्हा कहते हैं, "मैंने चार छात्रों के साथ यह स्कूल करीब एक दशक पहले शुरू किया था. आज राज्य के दूरदराज इलाकों से आये 430 बच्चे आज यहां पढ़ रहे हैं." स्कूल के प्रिंसिपल आरयू खान का कहना है कि मुसहर जाति के लोग जहां भी ज्यादा संख्या में हैं वहां भेदभाव, अलगाव और गंदगी दिखायी देती है. खान ने बताया, "ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं जिन्हें फसल ना होने पर खेतों से चूहे और घोंघे पकड़ कर खाना पड़ता है." स्कूल के 430 छात्रों में 117 ऐसे हैं जिनके पिता का बचपन में ही निधन हो गया. यहां आने पर पहले बच्चों को खाना खाने से लेकर साफ सफाई और शौचालय का प्रयोग करने की ट्रेनिंग दी जाती है. बुनियादी शिक्षा बाद में शुरू होती है.

बिहार के सामाजिक कल्याण मंत्री रमेश ऋषिदेव जोर दे कर कहते हैं कि मुसहरों की जिंदगी पहले से बेहतर हुई है. उन्होंने कहा, "हम कई समुदायों के साथ जम कर काम कर रहे हैं जिनमें मुसहर समुदाय भी शामिल है. हमारे कार्यकर्ता समुदायों के पास जा कर उनके बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराते हैं, उन्हें सरकार कौशल प्रशिक्षण योजनाओं से जोड़ते हैं ताकि उन्हें नौकरी मिल सके." कल्याण मंत्री ने यह भी कहा, पहले मुसहर लोग चूहा खा कर अपनी भूख मिटाते थे लेकिन अब "पुरानी पीढ़ी के लोग चूहा अपने स्वाद के लिए खाते हैं मजबूरीवश नहीं."

एनआर/एके (एएफपी)