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सोशल मीडिया और स्वतंत्र अभिव्यक्ति

मारिया जॉन सांचेज
६ अक्टूबर २०१७

ज्यों-ज्यों सोशल मीडिया यानि फेसबुक, ट्विटर, व्हॉट्सएप और इंस्टाग्राम आदि की ताकत और पहुंच बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों उनके नियमन की जरूरत भी अधिक शिद्दत के साथ महसूस की जाने लगी है.

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DW Shift Troll Coach Bary
तस्वीर: Twitter.com/TrollcoachBary

सभी सरकारें हर प्रकार की अभिव्यक्ति और उसके लिए उपलब्ध साधनों पर नियंत्रण करने और उन्हें अपनी गिरफ्त में लेने के लिए लालायित रहती हैं, लेकिन अब सोशल मीडिया के नियमन की मांगें नागरिक समाज और न्यायपालिका की ओर से भी आने लगी हैं. सोशल मीडिया का जिस व्यापक पैमाने पर सुनियोजित रूप से दुरुपयोग किया जा रहा है और उस पर जिस प्रकार का अमर्यादित एवं उच्छृंखल व्यवहार देखने में आ रहा है, वह किसी को भी चिंतित करने के लिए काफी है.

ट्रोल का निशाना महिलाएं

जहां एक ओर सोशल मीडिया के कारण ऐसे व्यक्ति को भी अपने विचार प्रकट करने का मंच मिल गया है जिसे पहले कोई मंच उपलब्ध नहीं था, वहीं दूसरी ओर वह निर्बाध, अनियंत्रित और अमर्यादित अभिव्यक्ति का मंच बन गया है. दूसरे से असहमति होने पर गाली-गलौज करना, धमकियां देना और अश्लील व्यवहार करना आम होता जा रहा है. पता नहीं यह बात सही है या गलत लेकिन माना जाता है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी समेत कई पार्टियों ने बाकायदा ऐसे लोगों की वेतनभोगी टीम बना रखी है जिनका काम दिन-रात ऐसे लोगों के खिलाफ विषवमन करना है जो पार्टी या उसके नेताओं की आलोचना करते हों. इन्हें ट्रोल कहा जाता है. महिलाओं को विशेष रूप से ऐसे ट्रोलों का निशाना बनना पड़ता है.

महात्मा गांधी हों या जवाहरलाल नेहरू, सभी के फर्जी चित्र सोशल मीडिया पर प्रसारित किए जाते हैं जिनमें फोटोशॉप के इस्तेमाल द्वारा परिवर्तन करके उनका चरित्र हनन किया जाता है. व्यक्ति और समुदायविशेष के खिलाफ नफरत फैलाने और दंगों की भूमिका बनाने में भी सोशल मीडिया की सक्रियता देखी गई है. इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट ने भी सोशल मीडिया के नियमन के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत बताई है और सरकार से इस बारे में कानून बनाने को कहा है.

किसे सजा दें, किसे नहीं

दरअसल 2009 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा बनाए गए सूचना तकनीकी कानून के अनुच्छेद 66ए में पुलिस को कंप्यूटर या किसी भी अन्य प्रकार के साधन द्वारा भेजी गई किसी भी ऐसी चीज के लिये भेजने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था जो उसकी निगाह में आपत्तिजनक हो. और यह तो पुलिस नाम की संस्था के चरित्र में ही निहित है कि अधिकार का दुरुपयोग किया जाये. तो पुलिस ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके अनेक प्रकार के मामलों में गिरफ्तारियां कीं. इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. इसके बाद केंद्र सरकार ने इस मामले की तह तक जाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया.

इस समिति की रिपोर्ट अब आ गई है और उसने भारतीय दंड संहिता, फौजदारी प्रक्रिया संहिता और सूचना तकनीकी कानून में संशोधन करके सख्त सजाओं का प्रावधान किए जाने की सिफारिश की है. इनमें एक सिफारिश यह भी है कि किसी भी किस्म की सामग्री द्वारा नफरत फैलाने के अपराध के लिए दो साल की कैद या पांच हजार रुपये जुर्माना या फिर दोनों की सजा निर्धारित की जाये. भय या आशंका फैलाने या हिंसा के लिए उकसाने के लिए भी एक साल की कैद या पांच हजार रुपये या फिर दोनों की सजा की सिफारिश की गई है. जांच प्रक्रिया के बारे में भी कई किस्म के संशोधन सुझाए गए हैं.

पिछले दिनों पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने "आई एम ए ट्रोल" नाम की किताब ही लिखकर सोशल मीडिया को ट्रोलिंग यानि किसी व्यक्ति को निशाना बनाकर उसके बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां करना और उसका चरित्रहनन करना, के लिए इस्तेमाल किए जाने का विस्तार से वर्णन, व्याख्या और विश्लेषण किया था. फाली नरीमन और हरीश सालवे जैसे देश के चोटी के विधिवेत्ता भी सोशल मीडिया को एक अभिशाप मानने लगे हैं. वर्तमान केंद्र सरकार इस समस्या से कैसे निपटती है, यह देखना दिलचस्प होगा.