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क्यों जिहादी बन रहा है यूरोप का युवा?

इंटरव्यू: मथियास फॉन हाइन/आईबी७ जनवरी २०१६

क्यों अच्छी खासी जिंदगी बिता रहे यूरोप के युवा अचानक ही जिहादी बन जाते हैं? आखिर कैसे उन्हें इस गलत राह पर निकलने से रोका जाए? यह जानने के लिए डॉयचे वेले ने बात की इस्लाम विशेषज्ञ ऑलीविये रॉय से.

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Jihadi John
तस्वीर: picture-alliance/dpa

डॉयचे वेले: यूरोप में रहने वाले युवा क्यों कट्टरपंथी इस्लाम और जिहाद की ओर आकर्षित होते हैं?

ऑलिविये रॉय: मैं समाज के प्रति कुंठा को इसकी वजह के रूप में देखता हूं. हम यहां विद्रोही युवाओं की बात कर रहे हैं, जो किसी मकसद की तलाश में हैं और जिहाद इसमें बिलकुल सही बैठता है. अगर आप जिहाद से जुड़ जाते हैं, तो आप हीरो कहलाते हैं. आप अखबारों की सुर्खियों में छा जाते हैं. हर कोई आप ही की बात करने लगता है. लोग आपसे नफरत करते हैं, इस बात से आपको कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आप तो यूं भी उनसे नफरत करते ही हैं. यूं समझिए कि युवा विद्रोह के बाजार में जिहाद आज कल परवान पर है. 30 साल पहले वामपंथ के चलते क्रांतिकारी आंदोलन हो रहे थे. लेकिन अति वामपंथियों की विचारधारा समझना इन युवाओं के लिए काफी मुश्किल है. वो कुछ ठोस करना चाहते हैं और लड़ना चाहते हैं.

क्या ऐसे कुछ खास किस्म के लोग हैं जिन्हें आसानी से भड़काया जा सकता है?

फ्रांस में दूसरी पीढ़ी के मुस्लिम रहते हैं. उनका यहां पश्चिम में ही जन्म हुआ, वे यहीं पले बढे. लेकिन उनके माता पिता मुस्लिम देशों से यहां आए थे. संस्कृति और परंपराओं का निर्वाह करना इन लोगों के लिए दिक्कत भरा होता है. बहुत से लोग ऐसे हैं, जहां माता पिता अपने बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में कुछ भी नहीं सिखा पाते, उन्हें कोई धार्मिक पाठ नहीं पढ़ाते. ऐसे बच्चों को शुरू से शुरुआत करनी पड़ती है. सलाफी विचारधारा और इस्लामी कट्टरपंथ में उन्हें एक ऐसा धर्म मिल जाता है, जो उन्हें सही लगता है. क्योंकि यह कायदों का धर्म है, उसमें हुक्म हैं और पाबंदियां हैं. और यह एक ऐसा धर्म है जो आस्तिक और नास्तिक के बीच एक साफ लकीर खींचता है. इस तरह से सलाफी विचारधारा उन्हें इस बात का एहसास दिलाती है कि वे एक एलीट-ग्रुप का हिस्सा हैं, जो दुनिया को बचाने का काम कर रहा है.

इससे उनके कट्टरपंथी बनने के बारे में तो समझ आता है लेकिन मरने और मारने को वो कैसे तैयार हो जाते हैं?

धार्मिक कट्टरपंथ सीधे आपको जिहाद की ओर नहीं ले जाता. अंत में बहुत कम ही लोग जिहाद की दिशा में जाते हैं. इन लोगों को हिंसा और मौत जैसे ख्याल रिझाते हैं. कुछ लोगों में आत्मघाती और शून्यवादी प्रवृति होती है. यूरोप में देखा गया है कि हमला करने के बाद वे वहां से भाग निकलने की कोशिश नहीं करते, बल्कि अधिकतर वहीं अपनी जान दे देते हैं. जब वो सीरिया जाते हैं, तो अपनी मर्जी से अपना नाम आत्मघाती हमलों के लिए देते हैं या खुद को इस्लामिक स्टेट का मोहरा बनने देते हैं.

क्या आपको लगता है कि इन लोगों को रोकना मुमकिन है, अगर किसी का बच्चा, दोस्त या जान पहचान वाला गलत रास्ते पर निकल पड़े?

जाहिर है, समाज इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है. लेकिन तजुर्बा यही बताता है कि जब वे एक सीमा पार कर चुके होते हैं, उसके बाद उन्हें कुछ भी समझाना मुमकिन नहीं रह जाता. उनकी वापसी केवल तभी मुमकिन है, अगर वे खुद अपने सामने जिहाद के अस्तित्व को नष्ट होता देखें. सीरिया से सैकड़ों जिहादी लौट कर वापस आए हैं. उनमें से कुछ ने तो वहां बेहद बुरी वारदातों को भी अंजाम दिया है. लेकिन बाकी ऐसे भी हैं जो निराश हो कर लौटे हैं और उन्होंने जिहाद से मुंह फेर लिया है. ये लोग दूसरों को समझाने में मदद कर सकते हैं कि इस लड़ाई में अपनी जान गंवाना सही नहीं है.

कई आतंकवादी जेल काट चुके होते हैं. ऐसा लगता है कि यह कैद भी उन्हें कट्टर बनाने में भूमिका निभाती है. इसे कैसे बदला जा सकता है?

युवा अपराधियों में दूसरी पीढ़ी के मुसलमानों की तादाद काफी ज्यादा है. जवान लोग आसानी से बहकावे में आ जाते हैं. इसलिए जेल में रह रहे लोगों की मानसिक जरूरतों का ख्याल रखना जरूरी है. मेरा मानना हे कि हर देश को जेलों में मुस्लिम कैदियों के लिए पेशेवर काउंसिलिंग की व्यवस्था तैयार करनी चाहिए.

फ्रांस के ऑलीविये रॉय इटली की यूरोपियन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर हैं. वे "ग्लोबल इस्लाम" नाम की किताब के लेखक हैं.