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क्यों नहीं हटती दिल्ली से धुएं की चादर?

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ईशा भाटिया सानन
२ नवम्बर २०१५

दिवाली अभी आई भी नहीं और दिल्ली धुआं धुआं हो गयी. आसपास के खेतों में लोग आग लगाने से बाज नहीं आ रहे, तो ट्रक वाले टोल देने को राजी नहीं. आखिर कब अपनी गलतियों से सीखना शुरू करेगी दिल्ली, पूछ रही हैं ईशा भाटिया.

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Indien Smog in Neu Delhi
तस्वीर: imago/Hindustan Times

भारत की राजधानी को वैसे भी संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के सबसे दूषित हवा वाले शहर का नाम दिया है. अब दिल्ली अपना ही रिकॉर्ड तोड़ने में लगी है. रिपोर्टों के अनुसार पंजाब में किसानों ने अपने खेतों में आग लगाई, जिसके कारण दिल्ली की हवा का स्तर 70 से 80 फीसदी तक गिर गया. हालत यह है कि बच्चों को ज्यादा देर बाहर ना रहने की हिदायत दी जा रही है. अगर बाहर निकलें भी, तो नाक और मुंह ढंक कर.

पिछले कई दिनों से इंडोनेशिया में भी कुछ ऐसे ही हालात हैं. धुएं की चादर ने देश के अधिकतर हिस्से को इतनी बुरी तरह ढका हुआ है कि सरकार भी नहीं समझ पा रही कि किया क्या जाए. ऐसे में बस बरसात का ही कुछ सहारा है. यह धुआं मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और फिलीपींस तक फैला है. आसपास के देशों की बदहाली को देख कर हम सबक ले सकते थे. पंजाब में फसल की कटाई होने वाली है, यह जानकारी तो थी ही, तो फिर कुछ दिशा निर्देश जारी हो ही सकते थे. लेकिन दूसरों की गलतियों से सीख लेना हमारी फितरत में ही नहीं है. यहां तक कि हम तो अधिकतर अपनी ही गलतियों से भी सीख नहीं लेते.

Manthan in Lindau
ईशा भाटियातस्वीर: DW

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों पर रोक लगाने से मना कर दिया. भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पटाखों पर रोक लगाने से लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं. एक धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक भावनाएं बच्चों की सेहत से ज्यादा मायने रखती है, यह बात कुछ हजम नहीं होती. कई पश्चिमी देशों में नए साल के अवसर पर आतिशबाजी का चलन है. लेकिन इसे सरकार रेगुलेट करती है. भारत और खास कर दिल्ली को पटाखों पर ऐसे ही रेगुलेशन की सख्त जरूरत है.

पर मान लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट पटाखों के खिलाफ फैसला सुनाती, तो भी, अदालत की सुनता कौन है? सुप्रीम कोर्ट ने तो दिल्ली में आने वाले ट्रकों पर ग्रीन टैक्स भी लगाया था. हल्के व्यावसायिक वाहनों को 700 और बड़े ट्रकों को 1300 अतिरिक्त रुपये का टोल चुकाना है. इसी रविवार से इसे लागू होना था. लेकिन दिल्ली में अधिकारियों का कहना है कि उन्हें तो साफ साफ कोई निर्देश मिले ही नहीं, तो वे क्यों फिजूल में टैक्स जमा करें. जहां कहीं कोशिश हो भी रही है, वहां ट्रक वाले भी कम सयाने नहीं है, वे रास्ता ही दूसरा चुन लेते हैं. यहां बात कुछ 100-200 ट्रकों की नहीं हो रही है, बल्कि हर रात दिल्ली में 50,000 से भी अधिक ट्रक प्रवेश करते हैं. रिपोर्टों के अनुसार दिल्ली की आबोहवा खराब करने के पीछे एक तिहाई हिस्सा इन्हीं का है.

और कारों की बात जाए, तो उनकी संख्या पर रोक लगाने का भी सरकार का कोई विचार नहीं दिखता. हर रोज दिल्ली की सड़कों पर 1400 नई कारें आ रही हैं. सर्दी के मौसम में धुंध और कारों का धुआं मिल कर और स्मॉग बनाएगा. लेकिन दिल्ली वालों ने शायद इसके साथ रहना सीख लिया है. वे खांसते हैं, छींकते हैं लेकिन इसे "छोटी मोटी बात" कह कर नजरअंदाज कर देते हैं. अगर यही सिलसिला चलता रहा, तो जर्मनी के माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट की भविष्यवाणी सच हो जाएगी और 2025 तक दिल्ली में सिर्फ प्रदूषण के कारण जान गंवाने वाले लोगों की संख्या 32,000 पार कर जाएगी. यह भी एक वर्ल्ड रिकॉर्ड होगा. और फिर छह महीने या एक साल में एक दो कार फ्री डे की रस्म अदायगी किसी काम नहीं आएगी.

इस वक्त दिल्ली को जरूरत है अपनी गलतियों से सीख लेने की. गाड़ियों को कम करने के लिए सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने की, धुआं छोड़ने वाली गाड़ियों के बदले पर्यावरण सम्मत गाड़ियों की. अगर दिल्ली ने अब भी "जो चल रहा है उसे चलने दो" वाला रवैया नहीं छोड़ा, तो वहां आने वाली पीढ़ियों के लिए सांस लेने लायक हवा तक नहीं बचेगी.

ब्लॉग: ईशा भाटिया