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क्यों पश्चिम जैसा बने एशिया

१४ मार्च २०१४

भारतीय लेखक पंकज मिश्रा को यूरोपीय समझ बढ़ाने के लिए लाइप्जिग पुस्तक मेला पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. उनकी किताब फ्रॉम द रूइन्स ऑफ एंपायर में उपनिवेशवाद के दौर की बात है.

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तस्वीर: DW/R. Ebbighausen

ये वही दौर था जब एशिया के कई देशों में पश्चिमी देशों के शोषकों के खिलाफ आवाज उठी. डॉयचे वेले के साथ बातचीत में मिश्रा ने अपनी किताब की प्रेरणा के बारे में बताया और यह भी बताया कि एशिया की प्रगति में कौन सी बात उन्हें सबसे ज्यादा दुखी करती है.

आपको यह किताब लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?

किताब लिखने की प्रेरणा इस बात से मिली कि दुनिया के जिस हिस्से में हमारे देश हैं, जैसे भारत, उनका इतिहास बाकी देशों के इतिहास से जुड़ा है, उनके समाज से जुड़ा है और फिर भी हमें इस पहलू के बारे में नहीं पता. मिसाल के तौर पर रबींद्रनाथ टैगोर के बारे में हम जानते हैं कि उन्होंने हमारा राष्ट्रीय गान लिखा. हम नेहरू और गांधी के साथ उनके दार्शनिक जुड़ाव को जानते हैं लेकिन चीन, जावा, काहिरा और तेहरान जैसी जगहों में टैगोर की दोस्ती के बारे में नहीं जानते. दक्षिण अमेरिका में उनकी दिलचस्पी के बारे में नहीं जानते और यह भी नहीं जानते कि टैगोर खुद इन देशों की संस्कृति और समाज के प्रति कितना आकर्षित थे. मैं एक किताब लिखना चाहता था जिसमें हमारे जुड़े हुए इतिहास सामने आएं, ताकि हम राष्ट्रीय इतिहासों के ढांचे से बाहर निकलें.

क्या इसी वजह से आप इस किताब में एशिया के सारे देशों को एक साथ लाए?

हां, इन सारे अनुभवों को एक साथ लाने के लिए. मैं यह नहीं कहना चाहता कि एक ही एशिया है, बल्कि यह बताना चाह रहा हूं कि 19वीं शताब्दी में पश्चिमी ताकत के जवाब में एशिया में बहुत सारी आवाजें उठीं.

आप भारतीय हैं, आप लंदन में रहते हैं और आपको यूरोपीय समझ बढ़ाने के लिए सम्मानित किया जा रहा है. आपकी जिंदगी में एशिया किस तरह की भूमिका निभाता है?

मुझे लगता है कि यह हमारे बढ़ते संपर्क और जुड़ने का हिस्सा है कि मेरे जैसा कोई जो भारत में पैदा हुआ, जिसकी मातृभाषा हिन्दी है और जिसने काफी देर में अंग्रेजी सीखी...

आपने अंग्रेजी कब सीखी?

मैंने अंग्रेजी बोलना काफी देर से सीखा, 17-18 साल की उम्र में जब में दिल्ली पढ़ने गया. जेएनयू में जहां मुझे अपनी बात ऐसे लोगों को समझानी थी जो केरल से, आंध्र से या तमिलनाडु से थे. तो मेरे जैसा कोई, जिसकी पृष्ठभूमि ऐसी हो, अगर वह एशिया का इतिहास अंग्रेजी में लिखे और उस किताब का अनुवाद जर्मन में हो और उसे जर्मन पुरस्कार भी मिले और मैं आपसे यहां इस बारे में बात करूं, यह सब इस बात का संकेत है कि हम एक जुड़े हुए विश्व में रहते हैं, जहां हमारी पहचान के कई पहलू हैं. हमारे बच्चे एक विविध समाज में बड़े हो रहे हैं और मुझे लगता है कि हमे इतिहास की जरूरत है, किताबों की जरूरत है जो इस अनुभव को प्रतिबिंबित करें.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

इसलिए आपको लगता है कि एशिया को एक नया इतिहास चाहिए?

हां, बिलकुल, एशिया ही नहीं, यूरोप भी. आप कह सकते हैं कि यूरोप को एशिया से ज्यादा एक नए इतिहास की जरूरत है. ब्रिटेन में युवा आजकल यह नहीं जानते कि ब्रिटेन भारत का कितना बड़ा हिस्सा था. वे 200 साल से ज्यादा भारत में थे.

उपनिवेशवाद का दौर आज के एशिया यूरोपीय रिश्तों को कैसे प्रभावित करता है?

मुझे लगता है कि बहुत से लोगों के दिलों में यह याद अब भी ताजा है और मुझे लगता है कि पश्चिम में लोगों को इसे भूलना नहीं चाहिए. एशिया के देश ताकतवर इसलिए बनना चाहते हैं क्योंकि वह दोबारा उपनिवेशवाद जैसा अनुभव नहीं चाहते. वह दोबारा अपमानित नहीं होना चाहते. अगर ईरान एक परमाणु ऊर्जा प्लांट बना रहा है, मुझे नहीं लगता कि वह बम बना रहा है, तो वह इसलिए ऐसा कर रहा है क्योंकि 1980 के दशक में सद्दाम हुसैन उस पर हमला कर रहा था और उस वक्त पश्चिमी देश सद्दाम हुसैन का समर्थन कर रहे थे. क्या यूरोप को यह बात याद है? ईरानियों को तो यह याद है. तो आपको दखलंदाजी, अपमान और हमले के इस इतिहास को समझना होगा, तभी आप समझ सकेंगे कि देश जो कुछ भी करते हैं, वह क्यों करते हैं.

आप कहते हैं कि पूरब में पश्चिमी आदर्शों का इस्तेमाल हो रहा है और आपको इस बात का दुख भी है. क्या आप इस बारे में कुछ और कह सकते हैं?

मुझे इस बात का दुख है कि हम एक ऐसे राजनीतिक और आर्थिक अस्तित्व को बनाने में असमर्थ हैं जो हमारे अलग से, यानी भारत में असली हालात को साथ लेकर नहीं चलता. मतलब कि हमारी जनसंख्या बहुत बड़ी है, ज्यादातर लोग गांवों में रह रहे हैं और खेती से गुजारा करते हैं. टैगोर जैसे कई बुद्धिजीवियों ने पहले ही समझ लिया कि आधुनिक होने के लिए हमें एक नया तरीका अपनाना होगा. हम दुनिया के एक छोटे अल्पसंख्यक समुदाय, यानी पश्चिमी यूरोप के लोगों के तरीकों को नहीं अपना सकते. हम इन तरीकों को इसलिए नहीं अपना सकते क्योंकि हमारा अपना ऐतिहासिक अनुभव अलग है. पश्चिम यूरोप के लोग अपने देशों से बाहर निकले और उन्होंने दक्षिण अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के इलाकों पर कब्जा किया. उन्होंने औद्योगिक क्रांति की शुरुआत की और उन्हें बहुत फायदा हुआ. हमारे पास वह नहीं है.
लेकिन अब एशिया बिलकुल वही कर रहा है!

हां, हम बिलकुल वही कर रहे हैं. हम आंखें मूंदकर आगे बढ़ रहे हैं. हम नहीं सोच रहे कि भारत एक बड़ी औद्योगिक ताकत कैसे बन सकता है. हम और कितने सामान का उत्पादन करें... चीन तो पहले से ही कितना सामान बना रहा है, हम इतने सारे लोगों को उत्पादन में रोजगार नहीं दिला सकते. हमारे आयात बहुत ही ज्यादा हैं. हम अमेरिका या ब्रिटेन के स्तर तक पहुंचने के लिए कितना वक्त लगाएंगे और देखा जाए तो पश्चिम के स्तर तक पहुंचने वाली यह कल्पना का वैसे भी क्या मतलब है.

इंटरव्यूः मानसी गोपालकृष्णन
संपादनः अनवर जे अशरफ