1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

क्यों है भारत में महिला डाक्टरों की कमी

प्रभाकर१५ जनवरी २०१६

भारत में मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के मामले में छात्राएं पीछे नहीं हैं, लेकिन पोस्ट ग्रेजुएट तक यह तादाद घट कर एक तिहाई रह जाती है. इतनी बड़ी तादाद में डॉक्टरी पढ़ने के बावजूद देश में महिला डॉक्टरों की भारी कमी है.

https://p.dw.com/p/1He7n
Nepal Ultraschall
तस्वीर: Mobisante/Sailesh Chutani

बीते साल भारत में एमबीबीएस में दाखिला लेने वाले छात्रों में महिलाओं की तादाद 50 फीसदी से ज्यादा थी. भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदी बाई जोशी ने वर्ष 1886 में मेडिकल की डिग्री हासिल की थी. अब कोई 130 साल बाद मेडिकल कॉलेजों में दाखिलों के मामले में महिलाओं ने पुरुषों को पछाड़ दिया है. बीते पांच वर्षों के दौरान भारत में पुरुषों के मुकाबले लगभग साढ़े चार हजार ज्यादा महिलाओं ने मेडिकल की डिग्री हासिल की है और यह तादाद हर साल लगातार बढ़ रही है.

दस हजार पर सिर्फ एक

भारत में स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधन शीर्षक एक अध्ययन में कहा गया है कि देश में महिला डॉक्टरों की भारी कमी है. उनकी तादाद महज 17 फीसदी है. उसमें भी ग्रामीण इलाकों में यह तादाद महज छह फीसदी है. ग्रामीण इलाकों में दस हजार की आबादी पर महज एक महिला डॉक्टर है. उनके मुकाबले हर 10 हजार की आबादी पर पुरुष डॉक्टरों की तादाद 7.5 फीसदी तक है. समाज विज्ञानी डॉ. अमित भद्र ने इंडियन एंथ्रोपोलॉजिस्ट नामक पत्रिका में स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिलाएं शीर्षक एक अध्ययन में कहा है कि पोस्ट ग्रेजुएशन और डॉक्टरेट के स्तर पर पुरुषों व महिलाओं की तादाद में अंतर तेजी से बढ़ता है. इस स्तर पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की तादाद महज एक-तिहाई रह जाती है.

इसके उलट पाकिस्तान व बांग्लादेश में मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाली महिलाओं की तादाद भारत से बेहतर क्रमश: 70 व 60 फीसदी है. पाकिस्तान में मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने वालों में 70 फीसदी महिलाएं हैं. लेकिन वहां महज 23 फीसदी महिलाएं ही प्रैक्टिस करती हैं. यानी डॉक्टरी की डिग्री हासिल करने वाली ज्यादातर महिलाएं प्रैक्टिस नहीं करतीं. बांग्लादेश में वर्ष 2013 में 2,383 पुरुषों ने मेडिकल की डिग्री हासिल की थी जबकि ऐसी महिलाओं की तादाद 3,164 थी. इससे साफ है कि वहां भी ज्यादातर महिलाएं मेडिकल की पढ़ाई के लिए आगे आ रही हैं.

पेशा और घरेलू जिम्मेदारी

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली के मनोचिकित्सा विज्ञान के डॉ. राकेश चड्ढा और डॉ. ममता सूद ने इसी मुद्दे पर अपने एक ताजा अध्ययन में कहा है कि डॉक्टरी के पेशे में अब भी पुरुषों की प्रधानता है. इसकी मुख्य वजह कामकाजी घंटों का ज्यादा और अनियमित होना है. इसी वजह से महिलाएं अपने पेशे और घरेलू व सामाजिक जिम्मेदारी के बीच तालमेल नहीं बिठा पातीं. मेडिकल पेशे में आने वाली ज्यादातर महिलाएं स्त्री-रोग या बाल रोग विशेषज्ञ बनने को तरजीह देती हैं. हालांकि अब इसमें बदलाव आ रहा है और महिलाएं सर्जन भी बन रही हैं.

डॉ. चड्ढा कहते हैं, "बावजूद इसके सामाजिक व घरेलू जिम्मेदारियों के दबाव में एमबीबीएस करने वाली महिलाएं उच्च-अध्ययन या प्रैक्टिस करने से पीछे हट जाती हैं." उनका कहना है कि आम तौर पर महिलाओं के विभागाध्यक्ष होने की स्थिति में उस विभाग में महिला डॉक्टरों की तादाद बढ़ जाती है. इस पेशे में आने वाली महिलाएं विभागाध्यक्ष को अपना रोल मॉडल मानती हैं और उनकी देखा-देखी ज्यादा महिलाएं संबंधित विभाग में आने का प्रयास करती हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि मेडिकल की पढ़ाई में छात्राओं की बढ़ती तादाद सराहनीय है. लेकिन साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि उनमें से ज्यादातर महिलाएं प्रैक्टिस करें. इसकी वजह यह भी है कि महिलाओं को अपने पेशे के प्रति ज्यादा समर्पित और मरीजों के प्रति व्यवहार कुशल माना जाता है.